ऑनलाइन शॉपिंग – तकनीक के कब्जे में बाजार

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राकेश कुमार अग्रवाल

कोरोना के चलते लंबे समय तक चले लाॅकडाउन से तबाह हुआ उत्पादन , चौपट कारोबार , छिने रोजगार व आम आदमी की खाली जेब बदहाल अर्थव्यवस्था का आईना बन गई थी . लेकिन आनलाइन प्लेटफार्म पर ई कामर्स कंपनियों द्वारा की गई बिक्री ने नई इबारत लिख डाली . त्योहारी सेल में ई काॅमर्स कंपनियों ने एक सप्ताह में 29000 करोड रुपए मूल्य के सामानों की बिक्री कर यह साबित कर दिया कि भारतीयों को भी तकनीकी पर आधारित खरीद फरोख्त का यह माॅडल रास आने लगा है .

रिसर्च फर्म रेडसीर के अध्ययन के मुताबिक भारत में ई – काॅमर्स कंपनियों की बिक्री गत वर्ष के मुकाबले 55 फीसदी बढी है . पिछले वर्ष इस अवधि में 19926 करोड रुपए मूल्य की सामान की बिक्री हुई थी जबकि इस वर्ष इसी अवधि में ग्राहकों ने 29000 करोड रुपए की शापिंग ई काॅमर्स साइट के माध्यम से कर डाली है .

लाॅकडाउन में जहां पूरा कारोबार बाजार धराशाई हो गया था वहीं ई काॅमर्स कंपनियों ने ताबडतोड प्रदर्शन किया था . देश में ई काॅमर्स का बाजार दो लाख करोड रुपए से अधिक मूल्य का है. इस नए तरीके के कारोबारी माडल ने दस लाख से अधिक युवाओं को रोजगार मुहैया कराया है .

दुनिया में लगभग 41 वर्ष पहले आनलाइन शापिंग ने दस्तक दे दी थी . उस समय आनलाइन शापिंग का मतलब आनलाइन भुगतान करना था . अंग्रेज नवोन्मेषी व्यवसायी माइकल एल्ड्रिच को इसका श्रेय जाता है . जिन्होंने नकद व्यापार की जगह आनलाइन कैशलैस कारोबारी माॅडल का सपना पाल रखा था . 1981 में थामसन हाॅलिडेज ने वीडोटेक्स के जरिए सबसे पहले आनलाइन ट्रांजेक्शन किया . इसके ठीक एक साल बाद 1982 में मिन्टेल सर्विस ने ट्रेन टिकट बुकिंग व आनलाइन स्टाॅक रेट प्रदर्शित करने की शुरुआत की . इसके बाद तो हर साल कोई न कोई नई सुविधा जुडती गई . 1984 में टेस्को स्टोर में पहली बार आनलाइन पेमेंट किया गया . 1985 में निसान ने पहली बार आनलाइन खरीदारी में क्रेडिट पेमेंट सुविधा शुरु की .

1989 में पीपोड.काॅम ने अमेरिका में घरेलू सामान के पहले आनलाइन स्टोर की शुरुआत की . इस विकास यात्रा में क्रांतिकारी मोड तब आया जब कम्प्यूटर विज्ञानी टिम बर्न्स ली ने वर्ल्ड वाइड वेब w.w.w सर्वर की खोज की . इसके बाद तो इंटरनेट के व्यवसायीकरण ने जोर पकडा . आनलाइन भुगतान और आनलाइन खरीदारी का कारोबार गति पकडा और इसे नया नाम मिला ई काॅमर्स . 1994 में नेटस्केप ने पहला व्यवसायिक ब्राउजर लांच किया . 1995 में लांच हुई अमेरिकन कंपनी अमेजन ने आनलाइन बुक्स बेचने से शुरुआत की इसके बाद से इस कंपनी ने पीछे मुडकर नहीं देखा .

भारत में यूं तो 1999 में रेडिफ . काॅम ने ई काॅमर्स की शुरुआत कर दी थी . लेकिन सफलता 2002 में आईआरसीटीसी के हिस्से में आई . आईआरसीटीसी ने आनलाइन टिकट बुकिंग व रिजर्वेशन को सफलता पूर्वक लागू कर एयर इंडिया व एयर डेक्कन एयर लाईंस के लिए भी आनलाइन बुकिंग और रिजर्वेशन का रास्ता खोल दिया .

लेकिन आनलाइन कारोबारी माॅडल की शुरुआत का श्रेय जाता है दो आईआईटियन स्टूडेंट्स सचिन बंसल और बिन्नी बंसल को . दिल्ली आईआईटी से स्नातक सचिन और बिन्नी बंसल ने 2007 में बैंगलुरु से फ्लिपकार्ट की शुरुआत की . इसकी भी शुरुआत अमेजन की तरह आनलाइन बुक्स बेचने से हुई थी .
आनलाइन कारोबार के बढते ट्रेंड से खुदरा कारोबारियों में खासा रोष व्याप्त है . यह आक्रोश तब भी छलका था जब माॅल और डिपार्टमेंटल स्टोर कल्चर पनपा था . सवाल उठता है कि आप बदलाव को रोक कैसे सकते हैं ? आप किसी एक कारोबारी माॅडल को सर्वश्रेष्ठ और अन्य माॅडलों को बकवास करार कैसे दे सकते हैं ? हमें यह भी याद रखने की जरूरत है कि हर बिजनेस माॅडल में कुछ खूबियां होती हैं तो कुछ खामियाँ भी होती हैं .

छोटे गांवों व कस्बों में जहां के बाजार इतने विकसित नहीं हैं . चुनिंदा प्रोडक्टस इन बाजारों में मिलते हैं वहां के खरीदारों को भी घर बैठे मनचाहे प्रोडक्ट कम कीमत पर मिलने लगे हैं . कमोवेश यही हाल शहरों में रह रहे लोगों का है जिनके पास इतना वक्त नहीं है कि वे महानगरों व शहरों में पार्किंग की समस्या से जूझें इसके बाद ट्रेफिक जाम में फंसकर अपना वक्त जाया करें . बाजार में भी खरीदारी करने के बाद प्रोडक्ट को घर लाने में लगने वाला घंटों का वक्त बच गया है . अब घर बैठे वांछित सामान घर आने लगा है . बडे नगरों , महानगरों में तो 24 घंटे के अंदर सामान की होम डिलिवरी हो जाती है . जिस तरह नेटवर्क मार्केटिंग के जरिए प्रोडक्ट का डायरेक्ट सेलिंग का कंसेप्ट आया था . यह कंसेप्ट उससे कहीं ज्यादा बेहतर है . परम्परागत कारोबारी माडल पर काम कर रहे व्यवसायी जरूर अपने कारोबार पर संकट महसूस कर रहे हैं . लेकिन उन्हें यह समझना चाहिए कि अभी कुछ विशेष प्रोडक्ट की खरीद के लिए आनलाइन खरीदारी पर ज्यादा फोकस किया जाता है . न कि रोजमर्रा की हर छोटी बडी खरीदारी पर . दूसरा जब ई काॅमर्स प्लेटफार्म पर आफर की बरसात होती है तब सामान्य दिनों की अपेक्षा खरीद फरोख्त ज्यादा होती है . ऐसे में कस्टमर का विवेक ज्यादा मायने रखता है कि जिन वस्तुओं की जरूरत नहीं है उन पर आफर की बौछार देखकर अनावश्यक खरीदारी न करें . अलबत्ता ई काॅमर्स माॅडल ने उन कंपनियों की चांदी कर दी है जो विज्ञापनों पर भारी भरकम धनराशि खर्च करने की स्थिति में नहीं है न ही उनके पास प्रोडक्ट को बेचने का भारी भरकम मार्केट नेटवर्क था .

तीन दशक पूर्व जिस तरह पोस्टमेन का इंतजार होता था आज पोस्टमेन की जगह डिलीवरी ब्बाय ने ले ली है . देखना यह है कि यह कारोबारी माॅडल कब तक चलेगा एवं वक्त के साथ किन किन बदलावों से इसे गुजरना पडेगा . आखिर सभी का प्रयास अपने ग्राहक देवता को भरमाने का जो है .

Rakesh Kumar Agrawal

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