इतिहास के आईने में राज्यों का पुनर्गठन

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गतांक से आगे

राकेश कुमार अग्रवाल

पोट्टि श्रीरामुलु की 56 दिनों की भूख हडताल के बाद हुई मौत और इसके बाद आँध्र प्रदेश राज्य के गठन के बाद पैदा हुए हालातों को देखते हुए भारत सरकार ने फजल अली की अध्यक्षता एवं ह्दयनाथ कुंजरू एवं के एम पणिक्कर की सदस्यता में राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करनी पड़ी .

फजल अली आयोग ने 30 सितम्बर 1955 को अपनी रिपोर्ट पेश की . आयोग की सिफारिशों में
भारतीय संघ की विभिन्न इकाइयों के बीच संविधानिक असमानता समाप्त करने , संविधान की धारा 369 एवं राज प्रमुखों की संस्था को समाप्त कर भाग बी राज्यों को भाग ए राज्यों के साथ समान धरातल पर लाए जाने , भाग सी राज्यों को निकटवर्ती बड़े राज्यों में मिला दिए जाने , ऐसे भाग सी राज्यों को जिन्हें निकटवर्ती राज्यों में सुरक्षा आदि की दृष्टि से नहीं मिलाया जा सकता उन्हें केंद्र शासित क्षेत्र बना दिया जाए। एवं भारतीय संघ की इकाइयों का दो भागों में वर्गीकरण कर दिया जाए।

एक ऐसे राज्य जो भारतीय संघ की मूल संघीय इकाइयां हैं और दूसरे वे जो केन्द्रशासित क्षेत्र हों .
फजल अली आयोग ने राष्ट्रीय एकता , प्रशासनिक , आर्थिक एवं वित्तीय व्यवहार्यता , भौगोलिक सुगमता एवं भाषा आदि को राज्यों के पुनर्गठन का आधार बनाने की सिफारिश की थी .

भारत सरकार ने इस आयोग की सिफारिशों को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार कर राज्य पुनर्गठन अधिनियम 1956 पारित किया . इसके अंतर्गत 14 राज्यों असम , आँध्रप्रदेश , मुंबई , बिहार , केरल , जम्मू – कश्मीर , मध्य प्रदेश मद्रास , मैसूर , उड़ीसा , पंजाब , राजस्थान , उत्तर प्रदेश , पश्चिम बंगाल तथा 5 केंद्र शासित राज्य हिमाचल , दिल्ली , मणिपुर , त्रिपुरा एवं अंडमान निकोबार द्वीप समूह का गठन किया गया . 1961 में भारत ने गोवा को भी पुर्तगाली सरकार के कब्जे से मुक्त कराकर भारत में मिला लिया .

पिछले सात दशकों में राज्यों की संख्या बढ़कर 28 एवं केंद्र शासित क्षेत्रों की संख्या बढ़कर 9 हो गई है . जबकि वर्तमान में बोडोलैंड गोरखालैंड , बुंदेलखंड , पूर्वांचल समेत तमाम अलग राज्यों की मांग के फलस्वरुप राज्यों के पुनर्गठन का प्रश्न फिर से मुंह बाये खडा है .

भारत की संघीय एवम संसदीय प्रणाली में केंद्र सरकार को जानबूझकर राज्यों के मुकाबले ज्यादा शक्तिशाली बनाया गया है . राज्यों , पंचायतों एवं स्थानीय इकाइयों को प्रशासन में अर्थ पूर्ण भूमिका नहीं दी गई है . स्वतंत्रता के 73 वर्षों बाद भी राजनीतिक सत्ता एवं निर्णय प्रक्रिया में जनता की भागीदारी के अभाव में आम आदमी का राजनीतिक , सांस्कृतिक सामाजिक एवं आर्थिक विकास नहीं हो पाता है कुल मिलाकर विचारधारा राज्यों के पुनर्गठन की बात को नकार ती है एवं राजनीतिक सत्ता एवं विकास प्रक्रिया में स्थानीय कार्यों के माध्यम से जनता की स्वच्छता एवं प्रजातंत्र भागीदारी की मांग करती है .

गौरतलब है कि अगर कोई समाज बहुत दिनों तक अविकसित रह जाता है या अपने इर्द-गिर्द के समाज की तुलना में वह विकास के मामले में पीछे रह जाता है तब भी स्वायत्तता का प्रश्न उठता खड़ा होता है . जिसमें आर्थिक विकास के साथ-साथ सांस्कृतिक एवं जातीय पहचान की रक्षा करने का प्रश्न भी निहित होता है .

पूर्व में पंचवर्षीय योजनाओं के प्रतिपादन में आर्थिक विकास में क्षेत्रीय असमानतायें , बेरोजगारी , आधारभूत सुविधाओं का अभाव एवं विकास के लिए आवंटित राशि में राजनीतिक नेतृत्व का पक्षपात पूर्ण रवैया भी शामिल रहा है . विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा वोट की राजनीति के तहत पृथक राज्य के मुद्दों का भले राजनीतिकरण कर दिया गया हो लेकिन तमाम विसंगतियों के कारण और सात दशकों की उपेक्षा का ही परिणाम है कि राज्यों के पुनर्गठन का मुद्दा गरमाता रहता है . जिसकी अनदेखी भी नहीं की जा सकती है .

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