कोई तो लिखता है, कोई दिल से लिखता है, कोई सोच कर लिखता है, पर कोई पागलपन में लिखता है – अजय आवारा

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संस्कार का बीज कहीं भी पड़े, इसकी छांव में समाज को सुकून मिलता ही है। फूल किसी भी बाग में खिले, उसकी खुशबू अपनी पहचान जाहिर कर ही देती है। क्षेत्र की सीमाएं साहित्य को नहीं बांध पाती। सीमाएं और भाषाएं इंसान के बनाए दायरे हैं, जबकि साहित्य इंसान के मस्तिष्क की उत्कृष्ट उपज है। फिर भले ही उसकी जन्म स्थली कहीं भी हो, उसकी कर्म स्थली कहीं भी हो।

ऐसा ही एक विख्यात नाम हैं अजय ‘आवारा’ जी. जिन्हें दायरे नहीं बांध पाए। मूल रूप से हरियाणा में जन्मे, जबकि उनकी वर्तमान कर्म स्थली बेंगलुरु है। अहिंदी भाषी क्षेत्र में हिंदी की ऐसी अलख जलाई है, जिसने पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरो कर रखा हुआ है। अजय “आवारा” जी की शिक्षा अनेक शहरों में हुई। जैसा विद्वानों द्वारा कहा गया है, सीमा विचारों के मंथन को रोक नहीं पाती। सीमा इस सृजन को थाम नहीं सकती। सीमाएं उत्पत्ति की क्रिया को अवरुद्ध नहीं कर पाती।
ऐसा अहिंदी भाषी क्षेत्र, जहां हिंदी को एक प्रतिस्पर्धा के रूप में देखा जाता है। वहां अजय ‘आवारा’ जी ने विचारों की श्रंखला को भाषा की परिधि में बंधने नही दिया। उन्होंने भाषा की जगह विचारों के विश्लेषण को प्राथमिकता दी। उन्होंने मनोभावों को प्राथमिकता दी। सही भी है, जो साहित्य भाषा के लिए लिखा जाता है वह मस्तिष्क में आकर थम जाता है। वह दिल से जुड़ नहीं पाता। जब कि अजय ‘आवारा’ जी के शब्द हमें मन से जोड़ देते हैं। वास्तव में साहित्य की सार्थकता भी तभी पूर्ण होती है जब आपके मन के भावों को जागृत करे। उन्हें झंकृत करे।

अजय ‘आवारा’ जी ने रिक्तियों को तोड़ने की परंपरा बनाई है। उनका मानना है, कि अगर नियम, साहित्य और जनमानस के बीच दीवार बनकर खड़ी हो जाए तो उसका लाभ ही क्या। वस्तुतः इस तरह तो हम आम जन-मानस को साहित्य के लिए एक अजनबी सा बना देते हैं और इसे इस जटिल प्रक्रिया के रूप में परोसकर इसे एक उलझा हुआ दर्शन बना देते हैं। अगर कोई विचार आम जनमानस या एक पाठक के मनोभावों को ना छू पाए, तो क्या साहित्य अपने मकसद से दूर नहीं रह जाता? इसकी सार्थकता ही तभी सिद्ध होती है जब आप साहित्य के अर्थ से जुड़ें।
अजय ‘आवारा’ जी के लेखन की एक और विशेषता रही है। उनका मानना है, कि साहित्य सरल अवश्य होना चाहिए। परंतु यदि साहित्य मनोरंजन की सीमा से आगे ना बढ़ पाए तब भी साहित्य सम्मान नहीं पाता। उनका मत है कि, साहित्य इतना सरल तो हो कि मनोभावों को छेड़ दे। परंतु इतना शुद्ध भी हो, कि वह विचारों को चिंगारी दे सके। अंतर्मन में एक लहर दे सके। अगर गूढता साहित्य की सार्थकता को किनारों में बांध देती है, तो स्तर हीन हिंदी साहित्य इसके अर्थ पर प्रश्न चिन्ह लगा देता है।

अनेक संस्थाओं से जुड़कर, राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम तथा प्रशंसकों के माध्यम से अजय ‘आवारा’ जी के लेखन में दोनों छोरों को बड़ी कुशलता से जोड़ा है।

आप ने अनेक रंगों में लिखा है, काव्य की अनेक विधाओं में लिखा है और उतना ही सुंदर आपने गद्य भी लिखा है।उनके गद्य को जब हम पढ़ते या सुनते हैं तो उसमें भी एक लय होती है, उनके गद्य को पद्यात्मक गद्य कहा जा सकता है।

स्वभाव से वे इतने सरल और सहज हैं कि सामने वाले को यह आभड़ ही नही होता कि वो एक इतने वरिष्ठ साहित्यकार के सामने है।

नीचे लिखीं कुछ पंक्तियां, आपको ‘आवरा’ जी को जानने में अवश्य सहायक होंगी।

कोई तो लिखता है,
कोई दिल से लिखता है,
कोई सोच कर लिखता है,
पर कोई पागलपन में लिखता है।

कोई सोच समझ कर लिखता है
कोई सुनाने के लिए लिखता है
कोई अपनी बात लिखता है
पर कोई दिल की बात लिखता है।

कोई साहित्य की बात लिखता है,
कोई नियमों के आधार पर लिखता है,
कोई ज्ञान के अर्थ लिखता है,
पर कोई अंतर की आवाज लगता है।

कोई गुरु तो कोई रहबर है,
कोई संयोजक तो कोई आलोचक है,
कोई आदर्श तो कोई समीक्षक है,
पर कोई अपनी दीवानगी लिखता है।

कोई अर्थ है आदर्श का,
कोई आधार है संज्ञान का,
कोई रिश्ता है विश्वास का,
पर कोई बस सच लिखता है।

कोई कहे तेरे दिल की बात,
कोई कहे मेरे मन की बात,
कोई सबका मन रखता है,
पर कोई बस उद्गार लिखता है।

कोई उसे बेतुका कहता है,
कोई दर्द की पहचान कहता है,
कोई प्रेम के मनकों में देखें,
पर जमाना उसे आवारा कहता है।

नहीं बांध पाओगे उसे लफ्ज़ों में,
नहीं ढूंढ पाओगे उसे आंसुओं में,
खामोशी संग गुफ्तगू होती है जिसकी,
वो बस, तेरी तन्हाई में रहता है।

अजय आवारा”की कलम से

इस तरह की औऱ कविता पढ़ने के लिए इस लिंक को खोल कर पढ़ सकते।

http://www.chubhan.today/

Anuj Maurya

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