कोरोना काल में मिला ज्ञान

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कहावत सी बन गई है कि ‘ अंग्रेज तो चले गए लेकिन अंग्रेजी छोड गए ‘। देखते ही देखते अंग्रेजी घोषित – अघोषित रूप से अभिजात्य वर्ग , साहबी व इम्प्रेशन की भाषा बन गई। स्टूडेंट लाइफ में हर छात्र चाहता है कि वह भी फर्राटेदार अंग्रेजी बोले। कहते हैं कि भाषा पर पकड तभी अच्छे से आती है जब आपके पास संबंधित भाषा से जुडे शब्दों ( Vocabulary ) का अच्छा खासा ज्ञान हो। आपके पास शब्द संपदा हो। बताते हैं कि अंग्रेजी भाषा में १६ लाख से अधिक शब्द हैं। और हर साल डिक्शनरी में एक हजार नए शब्द जुड जाते हैं। शब्दों के सृजन की प्रक्रिया सतत चलती रहती है। सच यह भी है कि स्कूल लाइफ में हम लोग जितनी मीनिंग याद कर लेते हैं वही हमारा मूलधन होता है। इसके बाद शब्दों को अलग से लिखकर उनके अर्थों को याद करने का मौका ही नहीं मिलता या फिर हम लोग कभी तवज्जो ही नहीं देते। जब कभी नए शब्दों से हम आपको जूझना पडता है तो काॅमन सेंस का इस्तेमाल कर हम लोग अर्थ निकाल लेते हैं। भले वह सही और सटीक हो या न हो। भले अर्थ का अनर्थ ही हो जाए।

कोरोना काल का आधा वर्ष बीतने के करीब है। ऐसे में आकलन हो रहा है कोरोना से हमने क्या क्या खोया क्या क्या पाया।

एक ऐसी भी चीज है जिसको हम पढे लिखे से लेकर अनपढ – अशिक्षित ने भी पाया है और उस पर सबसे कम चरचा हुई है। मैं आज का विमर्श इसी मुद्दे पर केन्द्रित कर रहा हूं कि कोरोना काल ने आम और खास सभी को कुछ दिया हो या न दिया हो लेकिन जो सबसे बडी चीज दी है कि वह है अंग्रेजी की शब्द सम्पदा।

मैं कुछ शब्दों का उल्लेख कर रहा हूं ….माॅस्क , कोरोना , कोविड १९ , वायरस , लाॅकडाउन , अनलाॅक , कंटैनमेंट जोन, सेनेटाइजर , कोविड केयर सेंटर , थर्मल स्कैनिंग , एंटीजन टेस्ट , आइसोलेट , क्वारंटीन , पल्स आक्सीमीटर , कोरोना वारियर , कोरोना पाजिटिव , वैक्सीन , पेंडेमिक , पीपीई किट , स्वाब टेस्टिंग , कवराॅल , कोरोना चेन , इक्का दुक्का शब्दों को छोड दें तो बीते पांच माह में इन शब्दों की इतनी चरचा हुई है कि रिया और सुशांत की चरचा भी फीकी पड़ जाए। सभी को ये शब्द रट से गए हैं. और धडल्ले से प्रयोग भी कर रहे हैं। भले लोग इन शब्दों के वास्तविक हिंदी अर्थ न जानते हों। दुर्भाग्य की बात यह है कि ये सभी शब्द उस हिंदी मीडिया द्वारा परोसे गए हैं जो टीवी न्यूज या समाचार पत्रों की खबरों के रूप में हमें परोसे जाते हैं। ठीक नौ दिन बाद हम हिंदी दिवस मनायेंगे। हिंदी पर ढेर सारी बातें , चरचा व विमर्श करेंगे। क्या यह चरचा भी लाजिमी नहीं है कि हमारी हिंदी इतनी दरिद्र है कि हमारे पास उपर्युक्त शब्दों के समानार्थी हिंदी शब्द नहीं है या फिर हम हिंदी शब्द परोसना ही नहीं चाहते।

Rakesh Kumar Agrawal

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