कोरोना वैक्सीन … अब नई जंग जीतने की बारी

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राकेश कुमार अग्रवाल

सिर्फ केवल विशालकाय या भीमकाय चीजें या जीव जंतु ही इंसान को नहीं डराते हैं बल्कि अति सूक्ष्म जीवाणु – विषाणु जो आँखों से नजर नहीं आते वे भी कम मारक नहीं होते हैं . ज्यों ज्यों इंसानी सभ्यता आगे बढती जा रही है त्यों त्यों वक्त वक्त पर वह तमाम बीमारियों , महामारियों से लगातार जूझता आ रहा है . यह कुदरत की इंसान को उलझाने की रणनीति का हिस्सा है या फिर इसी बहाने एक नई समस्या से जूझने की ताकत देने का हिस्सा इंसान व प्रकृति के बीच यह खेल शताब्दियों से चला आ रहा है . चीन के वुहान शहर से निकला कोरोना वायरस ऐसा पहला वायरस नहीं है जिससे इंसान हलाकान हुआ है . सन 200 में फैली एंटोनिन प्लेग ने करोडों लोगों को काल के गाल में ढकेला तो सन 1300 – 1400 के मध्य में बुबोनिक प्लेग ने धावा बोला इसकी चपेट में आने से महज 4 वर्षों में 20 करोड लोगों को जान से हाथ धोना पडा था . इसकी भयावहता इस कदर थी की इस प्लेग महामारी को ब्लैक डेथ कहा जाने लगा था . चेचक , रशियन फ्लू , स्पेनिश फ्लू जैसी तमाम महामारियों का कहर भी बीसवीं सदी में बना रहा . एचआईवी / एड्स भी मौत की गारंटी बन चुका था . जिसकी चपेट में आने से तीन करोड से अधिक लोगों को जान से हाथ धोना पडा . एचआईवी के बाद साॅर्स , इबोला , स्वाइन फ्लू जैसी महामारियां भी सुर्खियों में रहीं . लेकिन नवम्बर 2019 में प्रकाश में आई कोविड 19 बीमारी ने पूरी दुनिया को हिला दिया . और देखते ही देखते कुछ ही माह बाद ही विश्व स्वास्थ्य संगठन ने इसे महामारी का दर्जा दे दिया . तभी से पूरी दुनिया के अमेरिका , रूस, चीन और ब्रिटेन जैसे विकसित एवं भारत जैसा विकासशील देश कोरोना से बचाव की वैक्सीन तैयार करने में जुटे हुए थे . रूस की स्पुतनिक के अलावा अमेरिका की फाइजर कम्पनी वैक्सीन को विकसित करने का दावा भी कर चुके हैं .

अति सूक्ष्म संरचनाएँ जो आँखों से दिखाई नहीं देतीं हैं वे भी इंसान को बीमार कर देती हैं , उनके लिए जानलेवा हो सकती हैं इसका भान लाखों वर्षों की विकास यात्रा के बाद इंसान को हुआ जब लगभग 1000 साल पहले फारस ( ईरान ) के चिकित्सक इब्न सिना ने इस आशय की संभावना जताई थी . एक सहस्राब्दी पहले इस तरह का विचार बडा ही क्रांतिकारी विचार था . जो आसानी से लोगों के गले नहीं उतरा . जब लोगों की मौतों का आँकडा बढा तो उस समय इन मौतों का वास्तविक कारण लोग समझ ही नहीं पाते थे . ज्यादातर लोग इसे ईश्वरीय प्रकोप ही मानते थे . तंत्र – मंत्र , झाड – फूंक , पूजा – अनुष्ठान , बलि ही उन दिनों उपचार के माध्यम थे . इन महामारियों की चपेट में जो भी इलाका आता था वहां मौत का ऐसा तांडव होता था कि पूरा का पूरा क्षेत्र ही लाशों से पट जाता था . उ.प्र. के हमीरपुर जिले के कुलपहाड कस्बे में आजादी के पहले जब प्लेग ने दस्तक दी थी तब उस समय यहां के मिशन कम्पाउंड में 500 महिलायें थीं जिनमें से 445 महिलाओं की मौत हो गई थी . उस समय के लोग बताते हैं कि एक महिला को दफना कर आते थे कि पता चलता था कि एक और का निधन हो गया है . लोगों में शिक्षा का प्रसार होने स्वास्थ्य के प्रति जागरुकता आने के बाद बीमारियों की मारकता में कमी तो आई है फिर भी हर दस बीस वर्षों में कोई न कोई बीमारी चिकित्सा जगत को हलाकान कर देती है .

1850 में फ्रांस के सूक्ष्म जीव विज्ञानी लुई पाश्चर ने पहली बार वैक्सीन विकसित कर विषाणुओं से निपटने का जो रास्ता खोला वह मानवता के लिए मील का पत्थर साबित हुआ . गत डेढ सौ वर्षों में दर्जनों घातक बीमारियों की वैक्सीन खोजी गईं . आज तो बच्चे के जन्म से लेकर एक- दो साल की उम्र तक उसका हर माह वैक्सीन की खुराक लेने में निकल जाता है .

आज पूरी दुनिया की निगाहें कोरोना वैक्सीन की उपलब्धता पर लगी हैं . अमेरिकी दवा निर्माण कंपनी फाइजर और जर्मन कंपनी बायोएनटेक एसई ने मिलकर जो वैक्सीन विकसित की है उसका ब्रिटेन में उपयोग भी शुरु हो गया है . विश्व स्वास्थ्य संगठन ( डब्ल्यू एच ओ ) के अनुसार पूरी दुनिया में 150 से ज्यादा कोविड 19 वैक्सीन को विकसित करने पर काम चल रहा है . जिससे सहजता से समझा जा सकता है यह कोरोना से निपटने की विश्व स्तर पर सामूहिक कोशिशें हैं या फिर कोरोना के कारण पैदा हुए बाजार की मलाई खाने का उपक्रम . एस्ट्राजेनेका – ऑक्सफोर्ड , फाइजर बायोएनटेक , माॅडर्ना , जाॅइडस कैडिला , गमालेया रिसर्च इंस्टीट्यूट और भारत बाॅयोटेक की वैक्सीन का निर्माण एवं परीक्षण अंतिम चरण में है .

वैक्सीन के निर्माण से ज्यादा अब बडी परीक्षा का दौर आने का वक्त आ गया है वह है वैक्सीन का ट्रांसपोरटेशन और इसके बाद उसका प्रयोग . अरबों की संख्या में वैक्सीन बाॅटल का निर्माण , पैकेजिंग व सीरिंज उत्पादन के बाद देश दुनिया में सुरक्षित तापमान को बरकरार रखते हुए गंतव्य स्थान तक पहुंचाना आसान काम नहीं है . वैक्सीन एक दिन में इस्तेमाल नहीं हो सकती है . इसके इस्तेमाल होने में महीनों लग सकते हैं इसलिए इसके भंडारण का भी इंतजाम करना सहज नहीं है . अभी तक वैक्सीन का जो मोड प्रकाश में आया है उसके अनुसार यह पोलियो की तरह ओरल वैक्सीन नहीं होगी इसे इंजेक्शन के माध्यम से दिया जाएगा . इतनी बडी संख्या में इंजेक्टेबल वैक्सीन देने के लिए प्रशिक्षित स्टाफ का होना भी उतना ही जरूरी है . जिस तरह से तमाम महामारियाँ इतिहास बन चुकी हैं अब कोरोना के भी इतिहास बनने का वक्त आ गया है . वर्ष 2021 पर सभी की निगाहें कोविड 19 से निपटने के महा अभियान एवं उसकी सफलता पर होंगी .

Rakesh Kumar Agrawal

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