गांवों से विलुप्त हो रही सावन की कजरी

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मनोज तिवारीी ब्यूरो अयोध्या
एक दौर था जब सावन के शुरू होते ही बारिश की फुहारों संग पेड़ों पर झूले व कजरी का मिठास पूरे वातावरण में घुल जाया करती थी। लेकिन अब ऐसा नहीं है। सावन बीतने को है, लेकिन न कहीं झूला और न ही कहीं कजरी के बोल ही सुनाई पड़ रहे हैं। परंपराएं लुप्त होती जा रही हैं!
क्षेत्र के पूरा बाजार निवासी 90 वर्षीय सिंगारी देवी ने बताया कि पहले गांव की लड़कियां सावन का इंतजार करती थीं। सावन के आते ही हर घर में झूला डाल के सब झूला झूलते कजरी के गीत सब गावत रही ,जो बड़ा निक लागत रहा। कजरी में पिया मेंहदी मंगा द मोती झील से, जाई के साइकिल से ना, पिया मेंहदी मंगा द, छोटकी ननदी से पिसा द, हमरा हथवा पर चढ़ा द, कांटा कील से, हरि हरि बाबा के दुवरिया मोरवा बोले ए आदि काजरी गीत काफी प्रचलित रही। कजरी गीत नई नवेली दुल्हन गांव की लड़कियां गाकर हास्य परिहास के साथ मनोरंजन किया करती थी।
यही नहीं खेतों में काम करते समय महिला मजदूर भी कजरी गीत गाकर सावन का जश्न मनाती थीं। लेकिन आज झूला और कजरी बीते जमाने की बात हो गई है। ननंद भौजाई का रिश्ता नदी के दो पाटों की तरह हो गए हैं। तो वही गाँव निवासी प्रेमा सिंह 60 वर्ष ने बताया कि पहले प्रेम घर में ही नहीं आस पड़ोस में भी था। टोला भर की लड़कियां एक जगह इकट्ठा होकर कजरी गायन करती थीं। लेकिन आज प्रेम का अभाव साफ दिखता है। गीता सिंह का कहना है कि समय के अभाव के चलते कजरी गीत तो दूर कई घरेलू परंपराएं दूर होती जा रही हैं। पहले संयुक्त परिवार था एक परिवार में दस लोग थे सब लोग एक जगह मिल बैठकर बातों बातों में ही हास परिहास शुरू कर देते थे पर आज संयुक्त परिवार टूटता जा रहा है और एकांकी परिवार लोक परंपराओं को निभाने का समय ही नहीं दे पाता। विभिन्न तरह के काम से फुर्सत ही नहीं मिलती। कजरी के लिए अब गांवों में माहौल ही नहीं रहता है।

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