ज़रूरत है फूल अध्यादेश लाने की

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राकेश कुमार अग्रवाल

नेता , अभिनेता या मंत्री का स्वागत करना हो तो फूल , मांगलिक कार्यक्रम का आयोजन हो तो फूल , शोक जताना हो या श्रद्धांजलि देना तो फूल , किसी को प्रपोज करना हो या अपने प्यार का इजहार करना हो तो फूल , पूजा में फूल , अर्थी और मैय्यत में फूल , गोरी के श्रृंगार का गजरा फूलों का और सुहाग की सेज भी हो तो फूलों के बिना न सजती है न ही महकती और गमकती है .

फूलों पर तो कवियों और शायरों ने गीत , गजलों की झडी लगा दी . किसी की तारीफ करनी पडी तो गीतकार ने फूलों सा चेहरा तेरा और कलियों सी मुस्कान कहकर एक पंक्ति में लाख टके की बात कह डाली .

फूल जो न केवल मनभावन व मनोहारी होते हैं अपनी खुशबू , महक और रंग रूप से हर किसी को अपने वश में करते आए हैं . तभी तो बच्चे से लेकर महबूबा की तुलना अकसर फूलों से कर दी जाती है .
लगे रहो मुन्नाभाई फिल्म ने तो किसी रूठे को मनाने के लिए उसे फूल देना एक नायाब फार्मूला के रूप में सुझाया था . जो कई महीनों तक पूरे देश में सुर्खियों का विषय रहा था . फूलों से स्वागत होता है तो किसी मेहमान की अगवानी भी फूलों से की जाती है . फूल या पुष्प गुच्छ देकर सम्मान किया जाता है . लेकिन फूल किसी के अपमान का भी सबब बन जाते हैं . यह पता हाल ही तब लगा जब भाजपा सांसद ज्योतिरादित्य सिंधिया को एनएसयूआई नेताओं ने ज्ञापन के बहाने बेशर्म के फूल थमा दिए .

एनएसयूआई नेताओं ने बेशरम हो होकर फूल भी दिए तो बेशर्म के . गुस्सा आना भी लाजिमी था . ग्वालियर पुलिस ने एनएसयूआई के चार नेताओं के अलावा 6 अन्य नेताओं के खिलाफ मुकदमा दर्ज करने का फैसला लिया . कानून की किसी धारा में बेशर्म का फूल किसी को थमाना अलोकतांत्रिक और असंसदीय कृत्य नहीं माना गया है ऐसे में ग्वालियर पुलिस ने भी तोड निकाल ही लिया और लाॅकडाउन के उल्लंघन के आरोप में धारा 188 लगाकर गोला का मंदिर थाने में एफआईआर दर्ज कर दी गई .

हालांकि 2009 में ससुराल को गेंदा फूल बता दिया गया था जब एक चुहल भरे गाने में बताया गया था कि

सैंय्या छेड देवे , ननद चुटकी लेवे
ससुराल गेंदा फूल
सास गारी देेवे , देवर समझा लेवे
ससुराल गेेंदा फूल

अगर एनएसयूआई नेताओं ने गुलाब की जगह गेंदा का फूल भी दिया होता तो भी गनीमत थी लेकिन उन्होंने फूल भी पकडाया तो बेशर्म का . जिसमें न सुगंध है , न उपयोगिता न ही माला में भी इस फूल को पिरोया जाता है . बेशर्म के फूल की स्थिति फूलों की रंगीन दुनिया में दलितों , आदिवासियों और दिव्यांगों से भी गई बीती है . क्योंकि इसको किसी प्रकार का कोई आरक्षण भी नहीं मिला है . भले शेक्सपीयर कह गए हों कि नाम से क्या फर्क पडता है लेकिन साहब फर्क तो पडता है फूल का नाम भी इतना बेहयाई वाला है कि इसकी बेशरमाई को क्या कहें यूं लगता है कि जैसे बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना . गनीमत तो यह रही कि एनएसयूआई वालों ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को एमाॅफफिलस टाइटैनम नाम का फूल नहीं दिया . दरअसल यह फूल दुर्लभ है एवं इन दिनों पोलैंड में खिला हुआ है . यह फूल जब खिलता है तो मांस की तरह बदबू देता है .

फिर छिडी रात , बात फूलों की
रात है या बारात फूलों की

ऐसे में तो अब फूलों के नाम से ही उबकाई आने लगी है . हमारा तो सरकार से निवेदन है कि चाहे कानून में संशोधन करे या फिर सरकार अध्यादेश लाए . हम फूल के लेने देने पर बैन लगाने की मांग नहीं कर रहे बस हमारा तो कहना है कि लेकिन फूल देना हो तो शौक से दें लेकिन बेशर्म और एमाफफिलस टाइटैनम जैसे फूल तो विरोधी को भी कतई न दिया जाए . आखिर फूलों की भी तो गरिमा है . और फिर हम तो उस देश के वासी हैं जहां कहा जाता है कि
फूल आहिस्ता फेको , फूल बडे नाजुक होते हैं .

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