फर्जी आदेश पर निज़ी हुई सरकारी ज़मीन का मामला दबाने के लिए सरकारी अमले ने परिजनों के नाम कराया प्लॉट

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  • चित्रकूट के ग्राम – रजौला की बेशकीमती सरकारी आराजी नंबर 200 का है मामला,

  • जमीन कारोबारियों की मिलीभगत से अधिकारियों – कर्मचारियों ने की सौदेबाजी।

  • सरकारी जमीनों को बचाने के लिए नहीं दिखाई कोई रुचि।

सतना। भगवान राम की कर्मभूमि धर्मनगरी चित्रकूट को भले ही मिनी स्मार्ट सिटी का दर्जा दे दिया गया है लेकिन यहां पर सरकारी कामों और निर्माण के लिये सरकारी जमीन ढूढ़े नहीं मिल रही है। इसकी वजह है यहां व्यापक पैमाने पर सरकारी जमीनों का फर्जी तरीके से निजी होना व व्यापक पैमाने पर अतिक्रमण होना। ऐसे मामलों में सरकारी अमला भी जमकर मलाई काट रहा है। जमीन फर्जीवाड़े में शामिल रहे आरआई बुद्धसेन मांझी के निलंबन के बाद कई मामले सामने आते जा रहे हैं। ऐसा ही एक मामला सामने आया है आराजी नंबर 200 का। यह जमीन मूल रूप से सरकारी रही है। जिसके अंश भाग को एक फर्जी आदेश से एक व्यक्ति को जमीन बंटन में दे दी गई। यह मामला तूल न पकड़े इसको लेकर इस जमीन से जुड़े कारोबारियों ने रेवड़ी की तरह सरकारी अमले से जुड़े लोगों को प्लाट बांटे हैं। जिसमें निलंबित आरआई मांझी के परिजन तो शामिल हैं ही, साथ ही पुराने और हाल के अधिकारियों के परिजनों के नाम पर भी प्लाट होने की जानकारी सामने आई है।

यह है मामले की शुरुआत

चित्रकूट के सरकारी अभिलेखों पर गौर करें तो 1958-59 में चित्रकूट के रजौला की आराजी नंबर 200 पूरी तरह से शासकीय थी, जिसका रकवा 8.43 एकड़ के लगभग रहा। यह स्थिति 78-79 तक रही। इसके बाद अचानक से इस जमीन का अंशभाग २००/१/ब एक निजी व्यक्ति रामश्रृंगार पिता रामकुमार गड़रिया के नाम पर हो गया। बताया जा रहा है कि यह सब खेल 78 में नायब तहसीलदार बरौंधा ने किया था। वहीं इसका एक हिस्सा 200/2 शासकीय विद्यालय को दिया गया। शेष 200/1 शासकीय पड़ा हुआ है।

इस तरह लोगों को पता चला

आराजी के निजी होने के बाद काफी समय तक भू-स्वामी चुप्पी साधे बैठा रहा। आराजी नंबर 200 के 4 एकड़ अंशभाग वाली आराजी 200/1/ब को लेकर जब स्वामित्वधारी ने निजी बताकर जमीनों की बिक्री शुरू की तो स्थानीय लोगों के कान खड़े हुए। अब तक इस जमीन को सरकारी मान रहे लोगों को जैसे ही इस आराजी के निजी होने की जानकारी मिली तो इसकी शिकायत 1996 में नायब तहसीलदार के यहां की गई। जिस पर नायब तहसीलदार ने सरकारी से निजी व्यक्ति को बंटन संबंधी आदेश की तलाश करवाई जो कहीं नहीं मिला। जिस पर उन्होंने इस बंटन को निरस्त कर दिया।

यहां से शुरू हुआ खेल

बंटन की जमीन सरकारी करने के नायब तहसीलदार के फैसले के खिलाफ अपील एसडीएम के यहां की गई। जिसे एसडीएम ने निरस्त कर दिया। इसको लेकर संबंधित जन अपर आयुक्त के यहां पहुंचे। अपर आयुक्त ने इस फैसले को इस आधार पर रोक दिया कि भू-स्वामी को सुनवाई का मौका नहीं दिया गया और दस्तावेज नहीं देखे। 2006 का यह आदेश अपने आप में विवादित भी माना गया। इधर उच्च न्यायालय पहुंच कर इत्तलाबी के आदेश कराए गए जिसमें उच्च न्यायालय ने स्पष्ट लिखा का बिना गुण दोष परीक्षण के इत्तलाबी के आदेश दिये जाते हैं। बस इसी आदेश से बचने के लिये जमीन कारोबारियों ने सरकारी अमले से मिलीभगत का खेल शुरू किया।

यह है वजह

बताया गया है कि चूंकि न्यायालय ने बिना गुण दोष परीक्षण के इत्तलाबी का निर्णय दिया। अर्थात जमीन का बंटन सही है या गलत इस पर कोई निर्णय नहीं है। लिहाजा इसकी जांच आगे कभी भी हो सकती थी। अगर जांच होती है तो यह जमीन सरकारी होने का पूरा खतरा बना है। क्योंकि अव्वल तो बंटन संबंधी आदेश किसी सरकारी अभिलेख और दायरा पंजी में नहीं है। दूसरा बंटन की जमीन बिना अनुमति नहीं बेची जा सकती है जो कि आगे किया गया है। ऐसे में कार्रवाई से बचने सरकारी अमले को भी उपकृत किया जाता रहा है।

इनके नाम आ रहे सामने

इस जमीन में कई प्लाट सरकारी लोगों को उपकृत करने दिए गए। इसमें पारुल मांझी, खेमचंद्र धुर्वे, आनंदराव खातरकर राजस्व अधिकारियों कर्मचारियों के परिजन बताए जा रहे हैं। इसी तरह बताया जा रहा है कि एक रीडर के परिजन, लोकायुक्त कार्रवाई में ट्रेप होते बचे लिपिक के परिजन सहित कुछ अन्य सरकारी अमले के परिजनों के नाम यह जमीन दी गई है।

मामला हमारे संज्ञान में आया है। इस जमीन का विस्तृत प्रतिवेदन तलब किया गया है। इसके बाद आगे की कार्रवाई की जाएगी।

Vinod Sharma

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