बयानवीरों से बयान वापसी

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राकेश कुमार अग्रवाल
योग गुरु बाबा रामदेव ने ऐलोपैथी को बकवास विज्ञान बताते हुए इस चिकित्सा पद्धति को बेकार और तमाशा क्या बताया देश भर के ऐलोपैथिक डाॅक्टरों से लेकर केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डाॅक्टर हर्षवर्धन भी बाबा के पीछे पड गए और उनसे अपना बयान वापस लेने को कहा . बाबा ने भी न न करते हुए बयान वापस भी ले लिया . हालांकि तब तक उनके बयान को लेकर जितना हो हल्ला मचना था वो तो मच ही गया . लेकिन बाबा के इस बयान वापसी ने कई सवाल जरूर खडे कर दिए हैं . कोई भी नेता हो या अभिनेता या फिर सेलेब्रिटी जैसे तैसे तो बयान देता है . कई बार तो मेरी अंतरात्मा कहती है कि बयान कोई स्वेच्छा से नहीं देता बल्कि उससे दिलवाया जाता है . भाई जिस बंदे से बयान दिलवा दिया तो उसी बंदे से अपने ही दिए बयान को वापस लेने का दवाब बनाना कहां तक उचित है ? एक सवाल यह भी है कि अगर वो येन केन प्रकारेण अपना बयान वापस ले भी ले तो उस वापस लिए गए उस बयान को रखेगा कहां ?
जब कारोबारियों ने अपने प्रतिष्ठानों में दो टूक लिखवा रखा है कि बिका हुआ माल वापस नहीं होगा तो फिर जुबां से निकले बयान की वापसी कहां तक उचित है . आपने कभी सोचा है कि वापस लिया गया ऐसा बयान भी तो कुलबुलाता रहता होगा . क्योंकि बयान तो एक शब्दभेदी वाण की तरह होता है जिसका मकसद ही किसी टारगेट तक पहुंचना होता है . और फिर हम सभी बचपन से सूक्ति वचनों को पढते आए हैं . कि धनुष से निकला तीर , बंदूक से निकली गोली और जुबान से निकली बोली कभी वापस नहीं आती . फिर भी देश में जब देखो तब बयानवीरों से बयानों को वापस लेने का दबाव बनाया जाता है जो मेरे मुताबिक घोर अलोकतांत्रिक है .
अरे भाई कुछ तो लोग कहेंगे क्योंकि लोगों का काम है कहना और आप हैं कि उनके कहने पर ही पाबंदी लगाने पर उतारू हैं . ये तो वही बात हो गई कि हम बोलेंगे तो कहोगे कि बोलता है . नेता हों या अभिनेता , साधु , संत , महात्मा , शिक्षक , अधिकारी सभी लोग बोलने का ही तो खाते हैं और आप हैं कि किसी को बोलने देना ही नहीं चाहते . क्या मन की बात केवल मोदी जी कर सकते हैं और किसी को मन की बात कहने का अधिकार नहीं है ? अरविन्द केजरीवाल बोलता है तो भी आपको उसके बोलने पर ऐतराज है .
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप तो अपने बोलने के लिए जाने जाते थे . वे मन के मौजी थे और मोदी जी की मन की बात से प्रेरित होकर जो भी मन में आता था कह देते थे . अमेरिका का मीडिया तो ट्रंप के ही पीछे पड गया था और उनका कार्यकाल पूरा होने के बाद मीडिया ने रिपोर्ट छापी थी कि ट्रंप ने मन की कहने के चक्कर में अपने पूरे कार्यकाल में तीस हजार से अधिक बार झूठ बोला . ये तो वैसी ही बात हो गई कि न बोलो तो आफत है . बोलो तो आफत है . मोदी जी ने आज तक मीडिया से सीधे रूबरू होकर उनके सवालों के जबाब नहीं दिए इसलिए आपत्ति है . मनमोहन जी नहीं बोलते थे तो मीडिया और विपक्षी दल उनको मौन मोहन कहने लगा था . और जब वे कुछ बोल देंगे तो फेकू और पप्पू जैसे जुमले भी गढने में आप लोग पीछे नहीं रहते .
मुझे लगता है कि जुबान पकडने की आदत मीडिया की देन है . जिसके चलते पहले वह किसी बयानवीर के बोल वचनों की पडताल करता है , फिर उसको मुद्दा बनाकर उस पर ढोल पीटता है . दूसरे पक्ष को चैनल पर बिठाकर बहस कराता है . उसके दिए गए बयान पर पोस्टमार्टम शुरु हो जाता है . एक बयानवीर का मुकाबला सैकडों एकजुट आवाजों से होता है . ऐसे में जान छुडाने के लिए बयानवीर को अपना बयान वीरता पूर्वक यह कहते हुए वापस लेना पडता है कि मेरे कहने का मतलब वो नहीं ये था .
अमरोहा के शायर रहे कफील आजर अमरोहवी ने भी कहा था कि
बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी लोग बेवजह उदासी का सबब पूछेंगे
ये भी पूछेंगे कि तुम इतनी परेशां क्यूं हो
जगमगाते हुए लम्हों से गुरेजां क्यूं हो …….
बयानवीरों के लिए ही कहा गया है कि तोल मोल के बोल . लेकिन अगर वो तौलेगा तो फिर क्या और कैसे बोलेगा . फिर तो हो सकता है मुंह से बयान ही बाहर न निकले . न बयानवापसी के लिए रायता फैले . कहते हैं कि कई बार हम जो बोलते हैं उसमें बातों ही बातों में मन की बात भी कह जाते हैं जिससे मन का गुबार भी निकल जाता है . इसलिए निंदक रूपी बयानबाजों को बोलने का मौका तो मिलना ही चाहिए . काम की बात निकले न निकले मन की बात तो आ ही जाती है .

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