बुंदेलखंड के पलायन का सच, पलायन नासूर बनता गया, आपरेशन की सुध किसी ने नहीं

6

संपादकीय

पृथक राज्य की मांग को लेकर आजादी के बाद से लेकर अब तक बुंदेलखंड में तमाम आंदोलन हुए हैं। पृथक राज्य निर्माण की मांग को लेकर तमाम संगठन भी बने। लेकिन वक्त के साथ अधिकांश संगठन कागजों में सिमटकर रह गए। जब कभी छोटे राज्यों का मुद्दा उछलता है तो बुंदेलखंड राज्य की सुगबुगाहट भी शुरु हो जाती है। लेकिन हकीकत यह भी है कि खाली होते जा रहे बुंदेलखंड व यहां से पलायन कर रही युवा पीढ़ी के दर्द व इस समस्या के निराकरण की मांग को लेकर कभी कोई ऐसा आंदोलन खड़ा नहीं हुआ जो राज्य और केन्द्र सरकारों की संवेदनाओं को झकझोरना तो दूर उन्हें जगा भी सके।
अलबत्ता जब जब भी लोकसभा और विधानसभा चुनाव आते हैं बुंदेलखंड राज्य का मुद्दा जरूर सुर्खियां बटोर लेता है। लेकिन चुनाव सम्पन्न होते ही यह मुद्दा सिरे से गायब हो जाता है। बुंदेलखंड राज्य की मांग वापस ठंडे बस्ते में चली जाती है। चौंकाने वाली बात यह है कि अलग राज्य की मांग तो हर बार उठती है। बार बार उठती लेकिन यहां के पलायन को कभी भी किसी भी प्रत्याशी या राजनीतिक दल ने मुद्दा नहीं बनाया। इसके कारणों पर जाएं तो बड़ी सीधी सी गणित है। पलायन करने वाले लोग समाज के अंतिम पायदान से हैं जो बेहद गरीब हैं। जिनको चुनावों के समय और मतदान के समय तो याद किया जाता है अन्य समय में उन्हें उपेक्षित कर दिया जाता है। पलायन करने वाले परिवारों के लोग अपने गांव व समाज में भी हाशिए वाले लोग होते हैं। जिनके होने न होने को नोटिस भी नहीं किया जाता है। क्योंकि ये ‘ लो प्रोफाइल ‘ लोग होते हैं। जबकि पृथक राज्य का मसला सीधा सीधा सत्ता की हनक व मलाई खाने से जुड़ा है। यदि पृथक राज्य बनेगा तो कहीं न कहीं सत्ता की भागेदारी में भी वे ही लोग शामिल होंगे जो पृथक राज्य की मांग के आंदोलन के अगुआ रहे हैं या फिर उस लडाई में शामिल रहे हैं। इसलिए नेताओं को सत्ता वाली लड़ाई का हिस्सेदार बनना तो भाता है। लेकिन यहां से लगातार हो रहे पलायन पर इनको जुंबिश भी नहीं होती है।
बुंदेलखंड मुक्ति मोर्चा , बुंदेलखंड इंसाफ सेना , बुंदेली समाज जैसे कई संगठनों ने बुंदेलखंड राज्य निर्माण की लम्बी लड़ाई लड़ी है। पृथक राज्य निर्माण के समर्थक तमाम आंदोलनकारी अलग राज्य की माला जपते जपते संसद और विधानसभाओं में भी चुनकर पहुंचे। लेकिन माननीय बनने के बाद इन्होंने कभी भी सदन में पलायन को लेकर मांग बुलंद नहीं की। न सदन में इस मुद्दे पर बहस की मांग की। अलबत्ता जब कभी अलग राज्य की मांग को जरूर सदन में उठाया गया।
पलायन को लेकर निर्वाचित जनप्रतिनिधियों व अन्य दलों के नेताओं की चुप्पी का परिणाम ही था कि मरता क्या न करता के हालात में लोगों को अपने घरों से बे वतन होने को मजबूर होना पड़ा। बस स्टेंड हों या रेलवे स्टेशन सिर पर पोटली रखे, कथरी बांधे , छोटे बच्चों को लेकर ये युवा दम्पत्ति गांवों से निकलने को मजबूर हुए। मेहनतकश बुंदेलियों को सबसे ज्यादा रोजगार ईंट भट्टा मालिकों ने दिया। इन्हें रोजगार तो मिला। आर्थिक सुरक्षा भी मिली लेकिन वहां इनकी मनमर्जी छीन ली जाती। इन्हें एक तरह से वहां बंधक बनाकर रखा जाता। मजदूरों ने एडवांस में बड़ी रकम ले रखी होती है। इसलिए मजदूर भी ज्यादा कुछ बोलने की स्थिति में नहीं होते हैं।
ईंट भट्टों पर काम करने वाले इन मजदूरों को लक्ष्य को पूरा किए बिना आने की इजाजत नहीं मिलती है। बकाया भुगतान पाना भी सहज नहीं होता है। ईंट भट्टों पर बड़ी संख्या में मजदूरों की जरूरत होती है। ऐसे में मजदूरों को गांवों से ईंट भट्टों तक पहुंचाने का जिम्मा स्थानीय लोगों ने उठाया जो लेबर ठेकेदार बन गए। ये गांव गांव मजदूरों के घरों में जाते और उनको मनवांछित रकम उपलब्ध कराकर साल भर की एडवांस में बुकिंग कर देते। ईंट भट्टा मालिक का इशारा मिलते ही ठेकेदार निजी बसों और ट्रकों में इन मजदूरों को भूसा की तरह लादकर ईंट भट्टों के लिए रवाना करते। ये मजदूर अपनी पत्नी व बच्चों के साथ खटिया , कथरी , बाल्टी , मग , खाने के बरतनों व पूरी गृहस्थी के साथ गांवों से भर भरकर लोग कुछ इस तरह जाते रहे जैसे 1947 में देश के विभाजन के समय लोग भारत और पाकिस्तान आ जा रहे थे। मजदूरों को इकट्ठा करने व उनकी रवानगी का वक्त भी ज्यादातर देर शाम का होता है। बसों व ट्रकों को भी कस्बे या गांव की सीमा से बाहर खड़ा किया जाता। और रात के अंधेरे में रवाना किया जाता ताकि इन पर न ज्यादा चर्चा हो न ज्यादा लोगों को पता चले। घरों में बचे तो केवल बूढ़े माता पिता।

राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट

Anuj Maurya

Click