मृत्युभोज की जगह बालिका सशक्तीकरण बुंदेलखण्ड में नई परम्परा दे रही है दस्तक

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राकेश कुमार अग्रवाल
हम सभी अच्छी तरह से जानते हैं कि सजीवों का एक जीवन चक्र होता है . जन्म से लेकर सतत विकास के बाद उनका अंत भी होता है . इंसान की छोडिए किसी का पालतू पशु पक्षी भी यदि छोडकर चला जाता है तो उसके जाने की वेदना लम्बे समय तक उसको पालने वाले इंसान के जेहन में रहती है .
हर धर्म और समाज ने इंसान के निधन होने पर उसके अंतिम संस्कार व उसके बाद की रस्मों से जुडे नीति , नियम व परम्परायें बनाईं . उक्त परम्पराओं का अनुपालन पीढी दर पीढी अनवरत रूप से आज भी चला आ रहा है . परम्परायें सही हैं या गलत इन पर गाहे बगाहे बहस भी होती आई है लेकिन इसके बाबजूद अधिकांश लोग इन रस्मों को आज भी निभा रहे हैं .
किसी प्रियजन के निधन के बाद तेरहवें दिन तेरहवीं की रस्म में पूरे समाज , व्यवहारी , रिश्तेदार व ब्राह्मणों को न्यौता जाता है . इस मौके पर शोक संतृप्त परिवार की ओर से प्रियजन की याद में अंतिम भोज जिसे सामान्यतौर पर मृत्यु भोज कहा जाता है दिया जाता है . इसके बाद ही उक्त परिवार समाज की मुख्य धारा का हिस्सा बनता है .
तीन चार दशक पहले राजस्थान में तो मृत्यु भोज की रस्म की प्रासंगिकता पर जोरदार बहस छिडी थी क्योंकि वहां तो साहूकारों से कर्ज लेकर या फिर जमीन गिरवी रखकर मृत्युभोज में पूरे गांव को जीमने के लिए बुलाने का रिवाज था .
यदि आप सामाजिक बदलावों पर अध्ययन करेंगे तो पायेंगे कि देश काल के हिसाब से जो परम्परायें रस्म बन जाती हैं वे एक या दो पीढी तक तो वैसे की वैसी अपनाई जाती हैं निभाई जाती हैं लेकिन तीसरी पीढी से इन परम्पराओं में वक्त के हिसाब से बदलावों की आहट आने लगती है . हालांकि यह आहट उस दौर के हिसाब से किसी दुस्साहस से कम नहीं होती है . लेकिन जब उसी आहट को भांपकर दूसरे लोग उसी रस्म को निभाते हैं तो धीरे धीरे यह समाज के लिए एक नजीर बन जाती है . लेकिन इसे आमतौर पर आगे बढाने का काम समाज का समृद्ध और सशक्त तबका ही करता है .
इन दिनों बुंदेलखण्ड में बदलाव की ऐसी ही आहट परम्परा के साथ नारी अथवा बालिका सशक्तिकरण की वाहक बन रही है .
बुंदेलखण्ड के हमीरपुर जिले का राठ कस्बा बडा शिक्षा केन्द्र माना जाता है . यहां के लोधी समुदाय ने तमाम नई परम्पराओं का सूत्रपात किया है . मृत्युभोज को बंद कर वहां पर भोग -प्रसाद की रस्म शुरु हुई .
बालिका सशक्तिकरण की नई परम्परा की शुरुआत की है झांसी के वरिष्ठ बाल रोग विशेषज्ञ डा. प्रमोद गुप्ता ने . राठ के बिहूनी गांव के मूल निवासी डा. प्रमोद गुप्ता ने अपनी मां के निधन पर सात सितम्बर को उनके ग्यारहवीं संस्कार में मृत्युभोज कराने के बजाए गांव की 25 गरीब बालिकाओं को पांच – पांच हजार रुपए की एफडीआर उन्हें सौंपी थी . डा. प्रमोद गुप्ता के अनुसार उक्त धनराशि देने का मकसद बालिकाओं की उच्च शिक्षा एवं उनके विवाह में आर्थिक मदद करना है .
डा. प्रमोद गुप्ता की शुरु की गई पहल को आगे बढाया है राठ के ही बजरिया मोहल्ला निवासी शिवशंकर गुप्ता ने . कपडा व्यापारी शिवशंकर उर्फ पप्पू धौहल की पत्नी सुनीता गुप्ता के निधन पर शिवशंकर ने मृत्यु भोज पर खर्च होने वाले रुपयों से पांच पांच हजार रुपए की एफडीआर बनवाकर राठ की सर्वसमाज की 41 कन्याओं को सौंपी . शिवशंकर ने इस पहल की प्रेरणा का श्रेय डा. प्रमोद गुप्ता को दिया .
नई परम्परा या पुरानी रस्मों के पक्ष और विपक्ष में ढेरों तर्क रखे जा सकते हैं . आप इन्हें रूढियां या कुरीतियां भी करार दे सकते हैं . आप सनातन परम्पराओं से जुडे लोक परलोक और मृतात्मा की शांति के लिए बनाई गई रस्मों से छेडछाड भी कह सकते हैं .
लेकिन इस बात को भी दिमाग में रखने की जरूरत है कि बदलाव की बयार में केवल खानपान , रहन सहन , पहनावा ही नहीं समय के साथ बहुत कुछ बदलता जरूर है . नारी सशक्तिकरण या बालिका सशक्तिकरण की दिशा में यदि समाज के लोग नई नजीर पेश कर रहे हैं तो यह काबिलेगौर ही नहीं काबिलेतारीफ भी है . एक तरह से यह समाज को बेहतर तरीके से गढने की दिशा में एक सकारात्मक कदम भी है . और इस कदम का स्वागत व सम्मान किया ही जाना चाहिए.

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