मैं अपना केस लड़ने के लिए कहां जाऊँ

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राकेश कुमार अग्रवाल
भले बचपन से हमें ये घुट्टी पिलाई गई हो कि प्रेम सबसे बडी चीज है . लेकिन फिर भी सच यह है कि चाहे अनचाहे हर किसी को लडना ही पडता है . हमारे महत्वपूर्ण धर्मग्रंथ रामायण , महाभारत भी लडाई से उपजे हैं . भाईयों की लडाई न होती तो शायद दुनिया गीता के ज्ञान व जीवन दर्शन से वंचित रह जाती . राम भी लडे , कृष्ण भी लडे , गांधी भी लडे व जीसस क्राइस्ट भी लडे . कोई देश के लिए लडा तो कोई कुरीतियों के लिए लडा . राजा राम मोहन राय , दयानंद सरस्वती , ईश्वरचंद विद्यासागर ऐसे ही लडाकू थे .
अब लडने की बारी आई है कांग्रेस महासचिव प्रियंका गांधी वाड्रा के पति राबर्ट वाड्रा की . बार बार की जांचों एवं जाँच एजेसियों की दिन दिन भर चलने वाली लम्बी पूछताछों से तंग आकर राबर्ट वाड्रा ने अपना केस लडने के लिए संसद जाने का फैसला लिया है . उन्होंने कहा है कि इस तरह के घटनाक्रमों से लडने के लिए मुझे संसद में पहुंचना होगा .
देखा जाए तो ये लडाई तो आदिकाल से चली आ रही है . पाषाणकाल में हमारे पुरखे पत्थरों से बने औजारों से लडे . प्राचीन समय में कबीलों में रहे लोगों का तो अधिकांश समय लडाई की तैयारियों में बीतता था . यही कारण है कि लोग जमकर पहलवानी करते थे . दंगल हांका करते थे . दूध , बादाम , दंड बैठक जीवनचर्या का हिस्सा होता था . जिसकी बाजुओं में जितना दम होता था वो उतना ही दमदार माना जाता था . इसलिए उस समय सभी की चाहत पहलवान बनने की होती थी . पहलवानों का मान सम्मान होता था . महाभारत के किरदारों के बारे में आप पढेंगे तो आपको लिखा मिलेगा कि फलाने बंदे में इतने हाथियों के बराबर बल था . सिकंदर से लेकर नेपोलियन तक , बाबर से लेकर बहादुरशाह जफर तक सभी लडते ही रहे . कभी तीर कमान से लडे तो कभी कभी गोला बारूद से . मिसाइलों व बमों से होने वाली लडाई में कुछ ही दिनों में आर पार की हो जाती है .
एक लडाई कागजों में भी लडी जाती है . अधिकारी कर्मचारी और व्यवस्था कागजी दस्तावेजों से ही लडती है . अदालतों में कागज के साथ वकील लोग जबान से तर्कों तथ्यों की लडाई लडते हैं . उ.प्र. के आजमगढ के लाल बिहारी को जब लेखपाल ने कागजों में मृत घोषित कर दिया तो उन्हें कागज में ही वापस जिंदा होने में दसियों साल लग गए थे . कागजों में यूं तो ज्यादा वजन नहीं होता लेकिन कोरे कागज पर कुछ लिख जाए तो वजन कितना बढ जाता है समझा जा सकता है . तभी तो एक फिल्म में हीरोईन गाना गाते गाते अपने प्रीतम से कहती है कि कागज कलम दवात ला , लिख दूं दिल तेरे नाम करूं ….रिजर्व बैंक के गवर्नर यदि कागज पर हस्ताक्षर करते हुए लिख दें मैं धारक को इतने रुपए अदा करने का वचन देता हूं तो उस कागज के टुकडे की औकात उतने रुपए की हो जाती है .
लडाईयाँ जमीन पर लडी जाती हैं , आसमान पर भी लडी जाती हैं और पानी में समुद्र में भी लडी जाती हैं . लेकिन आजकल जिस लडाई का सबसे ज्यादा महत्व है वह है जनता की अदालत में लडाई . जनता यदि आपके पक्ष में फैसला दे दे तो आप केवल लडाई ही नहीं जीतते बल्कि आप अपने व अपने परिवार के लिए खुशियों के दरवाजे भी खोल लेते हैं . जो लोग आज आपके पीछे पड जाते हैं वे जनता के बीच में अपनी लडाई जीत कर दूसरों की लडाई भी लडने लगते हैं .
इस लडाई को लडने के कुछ सलीके होते हैं . जनता के बीच में जाकर बस इतना बताना होता है कि आपके साथ कितनी ज्यादिती हो रही है . अपने परिवार का हवाला देना है . परिवार की कुर्बानियों का हवाला देना है . आपने मीडिया मैनेजमेंट कर लिया तो फिर तो आपकी बल्ले बल्ले . सीना तानकर कहिए कि आपकी अदालत में आया हूं . आपसे बडी , जनता से बडी कोई अदालत नहीं होती है . आपने यदि रोकर बिसूरकर इमोशनल कार्ड फेक दिया तो फिर समझ लो कि अदालत का फैसला आपके पक्ष में आ गया . आम आदमी लेखपाल और दरोगा जी की अदालत में न्याय की आस में चप्पलें रगडते रगडते धराशाई हो जाता है . जबकि खास लोग जनता की अदालत में मुकदमा लडते हैं . इस अदालत में बडी तासीर होती है जो व्यक्ति कानून और खाकी वर्दी से भागा भागा फिरता था जनता का फैसला उसके पक्ष में आते ही वही व्यक्ति माननीय सम्माननीय हो जाता है . और वही पुलिस और व्यवस्था उसकी आवभगत और खुशामद में लग जाती है . इसलिए मुझे भी लगता है कि मैं भी जनता की अदालत में चला जाऊँ और वहीं अपनी गुहार लगाऊं . लेकिन याद रखिए अपनी घर वाली से न लड बैठिएगा जनता की अदालत में घरेलू मसलों के फैसले नहीं होते . दूसरी बात इस अदालत में खर्चा बहुत होता है . आम आदमी के लिए बनी इस अदालत में आम आदमी केवल वोटर है . मैं परेशान हूं कि अपना केस लडने के लिए मैं कहां जाऊं ?

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