रायबरेली के मशहूर ढोलक मास्टर सुशील श्रीवास्तव का निधन

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मौत की सूचना मिलते ही प्रशंसकों में शोक की लहर दौड़ी।

जनपद भर में कहीं भी आर्केस्ट्रा हो तो आर्केस्ट्रा देखने वाले पहले ही पूछते थे आखिर ढोलक कौन बजाएगा सुशील श्रीवास्तव का नाम आते ही मानो दर्शकों और प्रशंसकों के चेहरे की रौनक दुगनी हो जाती थी। क्या ढोलक सुशील की बजेगी। अस्त हो गया वह सूरज। लोहानीपुर बड़ा फाटक के नाट्य एवं संगीत कला परिवार के एक और कलाकार ढोलक मास्टर सुशील लाला के निधन की सूचना मिलते ही मानो उनके प्रशंसकों के पैरों के तले से जमीन ही खिसक गई हो।

सुशील के हाथों में ऐसी ढोलक बजाने की  कला थी कि वह जनपद भर के विभिन्न आर्केस्ट्राओ रायबरेली का प्रसिद्ध बब्बी का आर्केस्ट्रा लालगंज के सागर का आर्केस्ट्रा में भी काम किया। बाकी और कई ब्रांड सुशील को अपने आर्केस्ट्रा में काम करने के लिए कहते तो उनकी व्यस्तता आडे हाथों आ जाती थी। लोगों की विशेष डिमांड सुशील के ढोलक की रहती थी। यही कारण था कि अधिकतर दिनो वह बिजी ही रहते थे। अभिनेता अमिताभ बच्चन गोविंदा मिथुन चक्रवर्ती और ऐसे ही बहुत से कलाकार है जिनके गानों में सुशील की ढोल जमकर बजती थी।

इसके साथ ही साथ वह एक अच्छे डांसर भी थे पर यह कला वह सिर्फ अपनी खुशमिजाजी के लिए करते थे।  लोग तालियां और इनाम लूटाते थे और साथ में खुद भी ठुमके लगाते थे। यही नहीं नवरात्रों में माता रानी के विशेष जागरण पर सुशील की ढोलक धमकती थी और माता रानी के जयकारे लगने लगते थे। सोते लोग भी उठकर  नाचने लगते थे। हाथों में ऐसी कला ढोलक पर शराबी फिल्म की अमिताभ बच्चन की एक्टिंग और ऐसी ऐसी धुन निकालते दे दे प्यार दे प्यार दे प्यार दे दे लोगों के पैर खुद थिरकने लगते थे।
रात्रि की विभीषिका को सिर्फ पहलवान की ढोलक ही ललकार कर चुनौती देती रहती थी।

सुशील अपनी रियाज संध्या से सुबह तक, चाहे जिस ख्याल से ढोलक बजाते हो, किंतु गाँव के अर्द्धमृत, उच्च औषधि-उपचार-पथ्य-विहीन प्राणियों में वह संजीवनी शक्ति ही भरती थी। बूढ़े-बच्चे-जवानों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का दृश्य नाचने लगता था। स्पंदन-शक्ति-शून्य स्नायुओं में भी बिजली दौड़ जाती थी। अवश्य ही ढोलक की आवाज़ में न तो हटाने का कोई गुण था और न महामारी की सर्वनाश शक्ति को रोकने की शक्ति ही, पर इसमें संदेह नहीं कि मरते हुए प्राणियों को आँख मूंदते समय कोई तकलीफ़ नहीं होती थी, मृत्यु से वे डरते नहीं थे। ढोलक मास्टर सुशील श्रीवास्तव शाम से सुबह तक ढोलक बजाते रहते थे। उसके ढोलक बजाने के पीछे जो भी भाव रहा हो लेकिन ढोलक की वह ध्वनि गाँव के अधमरे, दवाई-इलाज और पथ्य से रहित प्राणियों में वह जीवन भर देती थी।

उस ध्वनि को सुनकर गाँव के बूढ़े, बच्चे और नौजवान लोगों की शक्तिहीन आँखों के आगे दंगल का वही दृश्य नाचने लगता था। उनकी सुन्न पड़ गई नाड़ियों में बिजली-सी दौड़ने लगती थी। ढोल की उस आवाज से न तो बुखार हट सकता था और न महामारी की विनाशक शक्ति रुक सकती थी। परन्तु इतना निश्चित था कि मरते हुए प्राणियों को मरते समय कोई कष्ट नहीं होता था। वे लोग मृत्यु से डरते नहीं थे। यह कोई कहानी नहीं है बल्कि लोहानीपुर के बड़े फाटक जो कि इनका निवास रहा इनके पिता स्वर्गीय रामकृष्ण माता कृष्ण कान्ति रामलीला की कमेटी के सक्रिय कार्यकर्ता और पदाधिकारी भी रहे।

इसी का प्रभाव रहा कि उनके 6 बेटे और पांच बेटियों में भी उन्हीं का व्यवहार एवं स्वभाव दौड़ा और संगीत और कला से मोह  बढा। अधिकतर  नाट्य एवं संगीत कार्यक्रम में भागीदारी निभाते रहे। रमेश चंद्र श्रीवास्तव जहां रावण की भूमिका निभाते रहे लेकिन वर्तमान में अस्वस्थ चल रहे हैं। वही सुरेश चंद्र श्रीवास्तव जो हनुमान की भूमिका निभाते थे उनका अभी कुछ ही समय पहले निधन हो चुका है। लालन जो कि रावण की भूमिका निभाते थे उनका भी निधन हो चुका है। भानु हरमोनियम मास्टर की भूमिका निभाते हैं। अब मशहूर ढोलक मास्टर सुशील श्रीवास्तव के निधन होने की सूचना से मानो जनपद भर में शोक का वातावरण बन गया है। वही संगीत के क्षेत्र मे कलाकार हो यह दर्शक प्रतिभागी जो भी एक बार सुशील से मिला और उनके व्यवहार से पूरी तरह वाकिफ था क्योंकि वह बहुत ही हंसमुख और मिलनसार व्यक्ति थे यह समाचार सुना तो आंखें आंसुओं से डबडबा गई।

एक कलाकार और यह दुनिया  छोड़कर चला गया और रायबरेली बिरानी हो गई। सुशील के छोटे भाई नंदू भी अक्षय कुमार की भूमिका करते हैं। सुशील की शादी के कुछ दिन बाद उनकी पत्नी से अनबन हो गई और वह उनको छोड़कर मायके चली गई। जिंदगी के अंतिम दिनों में उन्होंने अपनी बहन और मित्रों यारों रिश्तेदारो के साथ रहना ज्यादा मुनासिब समझा। जब उनका शरीर साथ छोड़ रहा था तो वह अकेले थे। बताया जाता है कि जिला चिकित्सालय के रैन बसेरे में अनाथों की तरह पड़े रहते थे कुछ दिन बाद उनकी हालत और बिगड़ती चली गई और उनका निधन हो गया। स्थानीय लोगों की माने तो उन्होंने अपनी संपत्ति का हिस्सा किसी दूसरे को दे दिया था जिन्होंने धोखे से उनकी जमीन लिखा ली थी।

इसी कारण उनके परिजन उनसे नाराज रहते थे। किसी कलाकार का इस तरह अंत न हो यही वह व्यक्ति होते हैं जो समाज में किसी की भी नीरसता भरी जिंदगी को एक संगीत सुर वाद्य यंत्रों के साथ में लयवद्ध जिंदगी बनाने का प्रयास करते हैं सामाजिक एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों में। कलाकार की खुद की जिंदगी इतनी निराशा और अकेली वीरान होकर चली गई यह समूचे समाज के लिए भी एक तमाचा है क्या किसी का भी हाथ ना बढ़ सका सुशील के लिए। खैर हमारा यह प्रयास होना चाहिए जिस प्रकार सुशील का अंत हुआ उस प्रकार किसी भी कलाकार का अंत न हो।

रिपोर्ट- मनीष श्रीवास्तव

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