वोट बैंक के बिना नहीं लड़ी जा सकती सत्ता की लड़ाई

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यूपी डेस्क –उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में इस बार दलों का मेला लगने जा रहा है। इतने सारे छोटे बड़े , राष्ट्रीय व क्षेत्रीय पार्टियां चुनाव मैदान में उतरने जा रही हैं कि चुनावी परिदृश्य पर एक्जिट पोल व ओपीनियन पोल करने वाली एजेंसियों को भी सटीक नतीजे देने में पसीने छूट जाएंगे।
दरअसल देश में हर कोई इस बात को अच्छी तरह से जानने व समझने लगा है कि लोकतंत्र के चौपाए की धुरी विधायिका है। चुनकर संसद व विधानसभा पहुंचे जनप्रतिनिधि व सरकार ही व्यवस्था बनाने उसे संचालित करने व बदलाव लाने के सबसे बड़े वाहक होते हैं। यही कारण कि राजनीति अब समाजसेवा से इतर एक शानदार पेशा हो गया है।
राजनीति को चरम आशावादिता वाला फील़्ड कहा जाता है। असंभव को संभव करने वाला क्षेत्र राजनीति को माना जाता है। लेकिन राजनीति की राह इतनी सरपट भी नहीं होती है कि कोई भी इस राह में सरकते सरकते मंजिल को पा जाए। राजनीति में उतरे दलों व लोगों की पहली चाह विधायक या सांसद चुने जाने की होती है तो दूसरी चाह मंत्री सुख भोगने की व तीसरी चाह देश प्रदेश का मुखिया बनने की होती है। राजनीति में आए नेता को जब लगता है कि उसका अच्छा खासा जनाधार हो गया है। एवं वह अपने दम पर न केवल पार्टी का गठन कर सकता है बल्कि उस पार्टी के बैनर तले लोगों को निर्वाचित भी करा सकता है। इसी सोच के साथ शुरु होता है पार्टी के विस्तारीकरण का दौर।
राजनीतिक दलों व राजनेताओं को आप सबसे बड़ा जुआरी मान सकते हैं। जो पार्टी की बेहतरीन संभावनाएं न होने के बावजूद जोरदारी से चुनाव मैदान में उतरते हैं। चुनाव दर चुनाव जीत हार की परवाह किए बिना मैदान में उतरना नहीं छोडते हैं।
कांग्रेस को छोड दिया जाए तो सभी पार्टियों की विकास यात्रा शून्य से ही शुरु हुई है। लेकिन कुछ दशकों के संघर्ष के बाद तमाम दलों ने न केवल अपना सांगनिक ढांचा मजबूत किया। संगठन का विस्तार किया। लोगों को संगठन से जोड़ा। इक्का दुक्का सफलताओं के बाद पार्टी का जनाधार बढ़ता गया। और देेखते ही देखते कुछ पार्टियां सरकार बनाने तक में सफल रहीं।
राजनीति में सबसे बड़ी जरूरत होती है कि पार्टी और नेता का टार्गेट वोट बैंक क्या है। बिना टार्गेट वोट बैंक के आगे जाना सरल व सहज नहीं है। उत्तर प्रदेश में आप समाजवादी पार्टी को ही ले लीजिए यादव व मुस्लिम उसका मूल टार्गेट वोट बैंक है। इसके अलावा सपा ओबीसी , सामान्य व अनुसूचित जातियों में भी अपनी पैठ बनाने में लगी रहती है। सपा जब भी कोई चुनाव लडती है तो यह मानकर चलती है कि 20 फीसदी मतदाता तो उसका वोट बैंक है ही अगर 20 फीसदी अन्य वर्गों के मतदाताओं को पार्टी या प्रत्याशी प्रभावित करने में सफल रहा तो सीट निकालने की संभावना बढ जाती है।
बहुजन समाज पार्टी का आगाज ही बहुजनों को संगठित करने व सामान्य वर्ग के लोगों को खुलेआम मंचों से ललकारने उनसे सभा स्थल से उठकर चले जाने के लिए कहने से हुआ था। प्रतिरोध का राजनीति का यह तीखा स्वर बहुजनों को भाया और दलितों का बड़ा वर्ग बसपा से जा जुड़ा। बसपा ने दलितों के साथ मुस्लिम व ओबीसी की अति पिछडी जातियों को अपने साथ जोडा और सत्ता की राह बनाई। भाजपा जिसे बनियों की पार्टी कहा जाता था के साथ राममंदिर के निर्माण को लेकर चले आंदोलन से ब्राह्मणों को अपने साथ जोडा। इसके बाद पार्टी ने हिंदुओं के सभी वर्गों को सोशल इंजीनियरिंग के नाम पर अपने साथ जोडने का अभियान जारी रखा। खुलकर मुस्लिम विरोध तो कभी नहीं किया। लेकिन मुस्लिम तुष्टीकरण को हमेशा अपने निशाने पर रखा। व सांस्कृतिक राष्ट्रवाद एवं समान नागरिक संहिता की वकालत की। जिसका परिणाम भाजपा के सामने है। 1984 में लोकसभा की दो सीटें पाने वाली भाजपा की केन्द्र व प्रदेश में सरकार है। पार्टी के पास 30 फीसदी पुख्ता वोट बैंक है। यदि पार्टी के नेता व कार्यकर्ता मेहनत करें तो यह वोट बैंक 30 से बढ़कर 40 फीसदी तक पहुंच जाता है। बसपा भी दलित , मुस्लिम व अति पिछडी जातियों के बल पर 20 फीसदी वोट बैंक बनाने में सफल रही है। कांग्रेस का परम्परागत वोट बैंक जिसके बल पर कांग्रेस राज करती रही है उसे सपा , भाजपा व बसपा तीनों ने मिलकर हथिया लिया है। यही कारण है कि तीन दशक से कांग्रेस सत्ता से दूर हो गई। इस बार जिस तरह से तमाम नई पार्टियां यूपी चुनाव में ताल ठोक रही हैं ऐसे में यह तो तय है कि सभी प्रमुख पार्टियों के समक्ष अपने वोट बैंक को बरकरार रखने की चुनौती आन खडी है। दूसरे मतदाताओं को जोडना भी इन पार्टियों के लिए आसान नहीं है। कुल मिलाकर यूपी के रण में सभी पार्टियों के लिए अपने अपने वोट बैंक को बनाए रखने व साधे रखने की चुनौती है। वोट बैंक खिसकने का मतलब साफ है कि सत्ता की लडाई से बाहर का रास्ता देखना।

राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट

Anuj Maurya

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