सही वक्त है स्वास्थ्य सिस्टम की सर्जरी का

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राकेश कुमार अग्रवाल
कहते हैं कि संकट काल ही हमारी व्यवस्था , हमारी खूबियाँ , हमारी खामियाँ और हमारी तैयारियों को परखने का सही वक्त होता है . इस लिहाज से देखा जाए तो बुरा वक्त या संकट का समय सबसे बडा आईना होता है . खबरें बता रही हैं कि कोरोना ने देश के पूरे हेल्थकेयर सिस्टम के रेशे रेशे को उधेड कर रख दिया है . कहीं ऑक्सीजन का रोना है तो कहीं रेम्सडिविर इंजेक्शन की कालाबाजारी का प्रलाप जारी है . बिस्तरों को लेकर पूरे देश के अस्पतालों में मारामारी है . वेंटीलेटर सुविधा वाले बेड और आईसीयू में तो किस्मत वाले मरीज ही पहुंच पा रहे हैं.
कोरोना के चलते अन्य बीमारियों से जूझ रहे मरीजों का पुरसाहाल लेने वाला कोई नहीं है . मास्क और सेनेटाइजर जैसी चीजों का टोटा पडा है . थर्मल स्कैनर , पल्स ऑक्सीमीटर जैसे उपकरणों का एक बडा बाजार खडा हो गया है . जो मनमानी कीमतों पर बेचे जा रहे हैं .
सबसे विकट हाल में हमारा चिकित्सा तंत्र है जो सवा साल से अनवरत दे रही सेवा के चलते पस्ताहाल है . जिस स्वास्थ्य कर्मी को कोरोना के पहले अपनी एप्रन पहनना भारी पडती थी अब वही स्वास्थ्य कर्मी और चिकित्सक पीपीई किट पहनने को मजबूर हो गए हैं .
यूं तो देश में चिकित्सा की तमाम पैथियां प्रचलित हैं . जिनमें आधा दर्जन पैथियां ज्यादा प्रयोग में लाई जाती हैं . लेकिन सरकारी तौर पर पूरे हैल्थकेयर सिस्टम पर एलोपैथी हावी है . एवं बजट का बडा हिस्सा भी ऐलोपैथी पर ही जारी किया जाता है .
पूरी दुनिया के जो भी विकसित देश हैं वे अपने बजट का बडा हिस्सा शिक्षा और स्वास्थ्य पर खर्च करते हैं . क्योंकि मानव विकास के ये दोनों सबसे महत्वपूर्ण स्तम्भ हैं जिनको फोकस किए बिना किसी भी राष्ट्र की बेहतरी की परिकल्पना भी बेमानी है . भले देश के स्वास्थ्य मंत्री स्वयं एक डाॅक्टर हों लेकिन इस बात को कहने में कोई गुरेज नहीं है कि हम पश्चिमी देशों में स्वास्थ्य पर होने वाले खर्च से बहुत पीछे हैं . भारत अपनी जीडीपी का महज 2.5 प्रतिशत हिस्सा खर्च करता है स्वास्थ्य पर जबकि स्वीडन जैसा देश 9.27 प्रतिशत , जापान 9.21 , नार्वे 8.57 प्रतिशत व अमेरिका जीडीपी का 8.51 फीसदी खर्च करता है . जबकि ये देश आबादी के लिहाज से बहुत छोटे हैं . इस समय देश की आबादी लगभग 139 करोड का आँकडा छू रही है . भारत सरकार स्वास्थ्य सेवाओं पर खर्च के मामले में दुनिया में 158 वें स्थान पर है . जबकि आबादी में हम दुनिया में दूसरे स्थान पर हैं .
एक संगठन के सर्वे और ऑकलन के अनुसार देश में नागरिको के स्वास्थ्य पर सरकार महज 27 रुपए खर्च करती है जबकि लगभग 63 रुपया बीमार या तीमारदार को अपने इलाज के वास्ते खुद वहन करना पडता है . मोदी सरकार की इस बात के लिए तारीफ करना पडेगी कि उसने स्वास्थ्य बजट आवंटन दोगुने पर पहुंचा दिया है . 2014- 15 में स्वास्थ्य बजट जीडीपी का महज 1.2 प्रतिशत पर था . जो 2021-22 तक आते आते 1.2 फीसदी से बढकर 2.5 फीसदी तक जा पहुंचा है .
यह कितने बडे दुर्भाग्य की बात है कि हम ऐम्स जैसा दूसरा संस्थान देश में खडा नहीं कर पाएं है, . हालांकि देश के विभिन्न राज्यों की राजधानियों में एम्स खोले गए हैं लेकिन मरीजों और तीमारदारों का भरोसा जीतने में वे भी नाकाम रहे हैं . जिसका परिणाम यह हुआ है कि दिल्ली एम्स का वर्कलोड घटने के बजाए और भी बढ गया है .
यूं तो देश के सभी प्रांतों में दनादन मेडीकल कालेज खोले जाने की होड चल रही है . यह होड मेडीकल व्यवस्था को सुदृढ बनाने को बजाए हजारों करोड के बजट को ठिकाने लगाने की ज्यादा है . आप मेडीकल कालेज खोले जाने की घोषणा कर के बिल्डिंग बनवा सकते हैं . उपकरणों की खरीद कर सुसज्जित कर सकते हैं लेकिन मेडीकल स्टूडेंटस को डाॅक्टरी की पढाई की फैकल्टी कहां से लायेंगे . जो मेडीकल कालेज दस बीस वर्षों में खोले भी गए हैं उनके हाल जानकर आप बेहतर समझ सकते हैं कि केवल दरो दीवारें उपचार नहीं करती हैं . मेडीकल फील्ड में एक छात्र जब कम से कम दस साल अपने जीवन के खपाता है तब जाकर वो बेहतर डाॅक्टर बन पाता है . विसंगतियां इसके बाद शुरु होती हैं क्योंकि मेडीकल फील्ड का सफर दस साल की अनथक पढाई के बाद शून्य से शुरु होता है . आप प्राइवेट संस्थान से जुडें या राजकीय सेवा बहुत आकर्षक पैकेज आपको नहीं मिलता है . अपना नर्सिंग होम खोलने का मतलब करोडों रुपए तो इन्फ्रास्ट्रक्चर पर खर्च हो जाते हैं . और कदम कदम पर सरकारी रोडे लगने शुरु हो जाते हैं . मेडीकल के बनिस्पत तमाम ऐसे फील्ड हैं जिनमें पांच छह वर्ष के अध्ययन के बाद ज्यादा पैसा और रुतबा है . इसलिए जरूरत है कि मेडीकल कालेजों में पढाने के लिए प्रोफेसर बनने के लिए नए चिकित्सकों को आकर्षक ऑफर और पैकेज दिया जाए . ताकि बेस्ट टीचिंग फैकल्टी तैयार हो एवम नए स्टूडेंट को वे काबिल डाक्टर बना सकें . मेडीकल फील्ड का दुर्भाग्य यह है कि मशीनें हैं उपकरण हैं लेकिन चलाने वाले आपरेटर नहीं हैं .
पैथोलाजी , रेडियोलाॅजी मेडीकल फील्ड का बैकबोन है . सबसे ज्यादा गोलमाल इसी क्षेत्र में है . अलग अलग पैथोलाजी पर जांच के बाद समान रिपोर्ट आ जाए यह दुनिया का सबसे सुखद संयोग भर होगा . क्योंकि इस फील्ड में भी नाॅन टेक्नीकल का कब्जा है . जब तक पूरी तरह से सर्जरी नहीं होती देश का हेल्थकेयर सिस्टम पटरी पर नहीं आएगा . और यह बिना दृढ इच्छाशक्ति के बिना संभव नहीं है . अन्यथा इस तरह की आपदायें जब भी आएंगी हाहाकार ही मचाएंगीं .

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