हर मौत का कारण पढ़ाई का बोझ नहीं

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राकेश कुमार अग्रवाल

प्रतियोगी परीक्षाओं की तैयारी के लिए विभिन्न शहरों के प्रतिष्ठित कोचिंग संस्थानों में कोचिंग के लिए गए हजारों छात्रों में से कुछ छात्र आत्महत्या कर लेते हैं . कोचिंग मंडी में जितने भी छात्रों की मौतें होती हैं अकसर उन सभी मौतों को पढाई के दबाब के कारण हुई मौत करार दिया जाता है .

सभी मौतों की तह तक जाए बिना , मौत के कारणों की छानबीन किए बिना उन्हें एक काॅमन खांचे में कि पढाई के दबाब में आकर छात्र ने आत्महत्या की होगी फिट करके परोसना क्या उचित है ?

हम सभी जानते हैं कि परीक्षा में बैठने वाले 25 लाख छात्रों में से टाॅप 25000 छात्रों को आईआईटी संस्थानों में प्रवेश मिलता है . और यह पूरा संघर्ष इन्हीं संस्थानों में प्रवेश पाने के लिए होता है . इस तरह से देखा जाए तो महज एक फीसदी छात्र ही आईआईटी के लिए चयनित हो पाते हैं . यदि देश के हर कालेज के टाॅपर को ही चयन के लिए पात्र माना जाए तो कालेजों की संख्या भी लाखों में है . अकेले यूपी में यूपी बोर्ड से सम्बद्ध कालेजों की संख्या ही लगभग 25000 है . जिसमें सीबीएसई और आईसीएससीई बोर्ड के कालेजों को जोडा नहीं गया है . यदि केवल देश के सभी कालेजों के टाॅपर को ही निकाल लिया जाए तो इनकी संख्या लगभग ढाई लाख से कम न होगी . यदि केवल टाॅपरों के मध्य ही चयन परीक्षा हो तब भी दस में से केवल एक छात्र चयन के काबिल समझा जाएगा . ऐसे में कोचिंग मंडियों में पूरे देश से पहुंचने वाला स्टूडेंट का रेला भीड तो बढा सकता है लेकिन किसी भी कोचिंग में पढकर उसे चयन के काबिल बनाना आसान नहीं है . वो स्टूडेंट जो अपने कालेज में कभी टाॅप थ्री में नहीं आ पाया उसके लिए आईआईटी एक्जाम क्रेक करना उतना आसान है नहीं जितना अंदाजा लगा लिया जाता है .

आईआईटी और नीट की कोचिंग वाले छात्र – छात्राओं की उम्र आमतौर पर 16 से 19 वर्ष के मध्य होती है . जिनका कोचिंग के लिए बाहर जाने के पहले तक पेरेन्टस पल पल ख्याल रखते रहे हैं . यहां तक कि उन्हें कभी अकेले नहीं छोडा होता है . लेकिन जब वही बच्चा कोचिंग के लिए जाता है तो माता – पिता के बंधन से मुक्त हो जाता है . अनजान शहर में उसे कोई रोकने टोकने वाला नहीं होता है . दस से बीस फीसदी छात्र अर्जुन की तरह मछली की आँख भेदने के लिए दिन रात लगे रहते हैं . बीस से तीस फीसदी छात्रों के लिए प्राथमिकता कोचिंग की जगह मौजमस्ती व आजादी का जश्न होती है . उनके लिए अध्ययन सेकेंडरी हो जाता है . वो रोजाना ये प्लान बनाते रहते हैं कि कल से तैयारी करेंगे या परसों से तैयारी करेंगे . और वो कल या परसों कभी नहीं आता . ऐसा भी होता है कि किसी छात्र के सम्पर्क में कोई छात्रा आती है . वह अक्सर किसी टाॅपिक को समझने , क्वेश्चन को साॅल्व करने या साथ में तैयारी करने के बहाने लडके के पास आती रहती है उक्त छात्र उस छात्रा से हुई दोस्ती को प्रेम समझ बैठता है . उसका दिल तब टूट जाता है कि जब उसे पता चलता है कि जिस लडकी की वह मदद कर रहा है या जिसे वह बेइंतेहा चाहने लगा है वह तो किसी और लडके के प्रेम में है . ऐसे में भावावेग में आकर भी कुछ छात्र सुशांत सिंह राजपूत की तरह मौत को गले लगा बैठते हैं .

तमाम पेरेन्टस बच्चों को अप्रत्यक्ष रूप में यह कहकर भी इमोशनली ब्लैकमेल करते रहते हैं कि उन्होंने अपनी पूरी जमा पूंजी तेरी पढाई और कोचिंग पर लगा दी है . ऐसे में यदि तेरा सेलेक्शन नहीं हुआ तो हम लोग कहीं के नहीं रहेंगे . उस बच्चे को बार बार यह याद दिलाकर एक तरह से धमकाया जाता है कि यदि तेरा सेलेक्शन नहीं हुआ तो हम लोग बरबाद हो जाएंगे . हर बच्चे की एक क्षमता होती है उसका आई क्यू लेवल होता है क्या यह उचित है कि बच्चे से ऐसी अपेक्षा पाल ली जाए जिसके वह लायक न हो या वह उस स्तर पर न हो कि उसका चयन हो जाए . ऐसे छात्र जरूर इस तरह के कदम उठा लेते हैं कि अब वो मां बाप को क्या मुंह दिखायेंगे ? किस मुंह से उनसे कहेंगे कि साॅरी पापा – मम्मी मैं आईआईटी या नीट परीक्षा पास नहीं कर सका . पेरेन्टस को यह बार बार याद रखने की जरूरत है कि काम्पटीशन काफी तगडा होता है . ऐसे में बच्चे को टार्चर करने के स्तर पर न पहुंच जाएँ . कि वह जीवन को ही दांव पर लगा दे . इससे बेहतर है कि बेटे के लिए प्लान बी भी तैयार रखें यदि एक प्लान सफल न हो तो ताना देने के बजाए प्लान बी को एक्टीवेट कर दीजिए . आखिर बच्चे की जिंदगी से बडा तो कुछ और परीक्षा तो नहीं होती .

Rakesh Kumar Agrawal

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