अमेरिका में जो बाइडन की ताजपोशी के निहितार्थ

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राकेश कुमार अग्रवाल

दो बार 1987 एवं 2008 में राष्ट्रपति पद की उम्मीदवारी की दौड में रहे जो बाइडन ने आखिरकार 33 साल बाद ही सही न केवल शिखर की दौड में स्वयं को बनाए रखा बल्कि 78 वर्ष की उम्र में राष्ट्रपति पद की ताजपोशी कर यह संदेश भी दे दिया कि आखिर आखिर तक जो डटे रहते हैं वे एक दिन अपनी मंजिल पा ही जाते हैं .
छोटे बडे देशों को यदि गिना जाए तो दुनिया में इनकी संख्या 200 को पार कर जाती है . संयुक्त राष्ट्र संघ से सम्बद्ध देशों की संख्या ही लगभग 195 है . लेकिन यदि उन देशों की सूची बनाई जाए कि किन देशों का दुनिया में दबदबा है .
तो निर्विवाद रूप से अमेरिका स्वयंभू रूप से दुनिया का चौधरी है .
लोकतांत्रिक देशों में सत्ता हासिल करना हो या सत्ता परिवर्तन चुनाव परिणाम ही अंतिम फैसला करते हैं . अमेरिका की बेहद थकाऊ , उबाऊ व उलझाऊ चुनावी प्रक्रिया होने के बावजूद शुरुआत से ही पूरे विश्व के मीडिया की नजरें वहां की चुनावी गतिविधियों पर लगी रहती हैं . जिस चुनाव में डोनाल्ड ट्रंप जैसा प्रत्याशी चुनाव मैदान में हो तो यह क्रेज और भी बढ जाता है . क्योंकि डोनाल्ड कब क्या कर बैठें इसे शायद डोनाल्ड भी नहीं जानते होंगे . डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के उन चुनिंदा राजनेताओं में शामिल हो सकते हैं जो पहले से तय की गई पटकथा पर काम करते हुए आगे बढें यह जरूरी नहीं है . क्या किसी ने सोचा था कि व्हाइट हाउस से ट्रंप की विदाई इस अंदाज में होगी . क्या जो बाइडेन के शपथ ग्रहण में इस हद दर्जे की सतर्कता तब बरतनी पडेगी जब देश पर न कोई आतंकी हमले की धमकी थी न ही किसी पडोसी देश से युद्ध हुआ था . दरअसल सत्ता का नशा होता ही ऐसा है जो सिर चढकर बोलता है . चुनाव मैदान में उतरी पार्टी और प्रत्याशी को यह कभी महसूस ही नहीं होता कि उसकी कुर्सी डोल रही है और उसे पदच्युत होना पडेगा . वह तो अगली ताजपोशी की तैयारी में होता है . ट्रंप भ्रामक व बडबोले दावों के लिए जाने जाते थे जो धडल्ले से भ्रामक दावे करते थे . दुनिया में जितने भी राष्ट्राध्यक्ष हैं वे सभी अपने देश के फायदे के लिए फैसले लेते हैं . किसी प्रधानमंत्री या राष्ट्रपति के सभी फैसले शानदार होते हों ऐसा नहीं है . डोनाल्ड के भी तमाम फैसले विवादों का विषय बने . लेकिन उनके कार्यकाल में एक बात की जरूर तारीफ करनी होगी कि ट्रम्प के कार्यकाल में अमेरिका ने कोई युद्ध नहीं लडा . कसैलापन छोडकर डोनाल्ड व्हाइट हाउस से जा चुके हैं .
जीवन में तमाम त्रासदियां झेल चुके जो बाइडन सत्तानशीन हो गए हैं . जब बाइडन युवा थे तभी 1972 में उन्होंने अपनी पत्नी और बेटी को सडक दुर्घटना में खो दिया था .
हिंदुस्तान की आजादी के बाद से देखा जाए तो जो बाइडन अमेरिका के राष्ट्रपति के रूप में 14 वें नए चेहरे हैं . हैरी एस ट्रूमैन से लेकर डोनाल्ड ट्रंप तक 13 लोग इसके पहले राष्ट्रपति पद सुशोभित कर चुके हैं . सभी राष्ट्रपतियों के साथ अगर कुछ भारत के लिए पाजिटिव रहा तो कुछ फैसले ऐसे भी रहे जो भारत को नागवार गुजरे . ट्रूमैन ने भारत को आपात स्थिति में कर्ज के रूप में खाद्यान्न दिया था . तो शीत युद्ध में भारत के निर्गुट रवैए से वे भारत से खफा भी हो गए थे . ड्वाइट डी आइजनहावर ने भारत को आर्थिक मदद का पैकेज दिया था तो पाकिस्तान की तरफ दोस्ती का हाथ बढाकर उसे सैन्य मदद देकर भारत के खिलाफ पाकिस्तान के कंधे पर हाथ रख दिया था . जाॅन एफ केनेडी ने भारत को एक अरब डाॅलर का भारी भरकम कर्ज देने के अलावा तारापुर में परमाणु संयंत्र की स्थापना में मदद व बोकारो में स्टील प्लांट लगाने में मदद दी थी . लेकिन गोवा को भारत में मिलाने के सरकार के कदम की केनेडी ने आलोचना की थी . लिंडन जाॅनसन ने हरित क्रांति को लागू करने में भारत की मदद की थी . लेकिन उन्होंने 1965 के युद्ध के दौरान भारत को देने वाले हथियार एवं अन्य सैनिक सामग्री पर रोक लगा दी थी .
यदि बीते दो दशकों की बात की जाए तो जार्ज डब्ल्यू बुश ने भारत से परमाणु करार कर सैन्य रिश्तों को मजबूती दी लेकिन पाकिस्तान की मदद करना नहीं छोडा . बराक ओबामा ने प्रमुख रक्षा भागीदार के रूप में मान्यता दी लेकिन वे भारत को परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह का सदस्य नहीं बनवा सके . डोनाल्ड ट्रंप ने भी कभी भारत का साथ दिया , प्रधानमंत्री मोदी के साथ गलबहियां कीं तो कभी उन्हें निराश भी किया . जब भारत – चीन के बीच सीमा विवाद चरम पर था तब उन्होंने भारत का साथ दिया . लेकिन ट्रंप ने भी मौका पडने पर भारत पर आँखें तरेरीं . भारत को तरजीही व्यापार व्यवस्था से हटाया . जिसका खामियाजा निर्यातकों को उठाना पडा . भारतीय मूल की कमला हैरिस भले उपराष्ट्रपति हों लेकिन देश को इस मुगालते में नहीं रहना चाहिए कि जो बाइडन की नीतियाँ भारत के समर्थन में रहेंगी . दोनों देश अपना अपना फायदा चाहते हैं . जहां तक दोनों के हित साथ साथ निभेंगे वहां तक रिश्ते बिना कडवाहट के चलते रहेंगे . वैसे भी अमेरिका की अपनी आईडियोलाॅजी है जो उनके देश के हित में है . जिस पर सभी अमेरिकन राष्ट्रपति चलते हैं . जो बाइडन से इतनी अपेक्षा की जा रही है कि वे ट्रंप की तरह सनकीपना का व्यवहार नहीं करेंगे . वैसे भी चीन के बढते प्रभुत्व से यदि अमेरिका को पार पाना है तो उसे हिंदुस्तान को गुड फेथ में लेकर चलने में ज्यादा फायदा होगा .

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