नक्सलवाद – खूनी आतंक आखिर कब तक

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राकेश कुमार अग्रवाल
छत्तीसगढ के बीजापुर में नक्सलियों द्वारा 22 सुरक्षाकर्मियों को शहीद कर दिए जाने की बडी घटना के बाद देश के लोगों में उबाल आना लाजिमी है . नक्सलियों पर टूट पडने से लेकर सैन्य कार्यवाही किए जाने की मांग भी जोर शोर से होने लगी है . गृहमंत्री ने भी घटना के बाद आर पार की लडाई का वादा किया है . लेकिन सवाल यह उठता है कि क्या नक्सलवाद को एक झटके में समाप्त किया जा सकता है .
54 वर्षों बाद भी नक्सलवाद देश के तमाम राज्यों में आज भी शासन सत्ता और प्रशासन के समक्ष बडी चुनौती बन खडा हुआ है . नक्सली भी हर दो तीन वर्ष के अंतराल में एक दो बडी वारदातों को अंजाम देकर यह संदेशा दे देते हैं कि उन्हें अनदेखा करना या उनको कमजोर आँकना खतरे से खाली नहीं है .
अतीत के सूत्र खंगालें तो पाते हैं कि नक्सलवाद की शुरुआत 1967 में हुई थी . जमींदारों द्वारा मजदूरों का आर्थिक और शारीरिक शोषण और इस शोषण के खिलाफ कार्यवाही करने के बजाए पुलिस और प्रशासन द्वारा जमींदारों का साथ देने के फलस्वरूप श्रमिकों में जो हिंसक आक्रोश पनपा वो नक्सलवाद के रूप में जाना गया . पश्चिमी बंगाल का दार्जिलिंग का इलाका पूरी दुनिया में अपनी बेहतरीन चाय उत्पादन के लिए जाना जाता है . इन चाय बागानों में हजारों की संख्या में स्त्री पुरुष काम करते थे . चाय बागान मालिक और जमींदार स्त्रियों का यौन शोषण करते और उनके बच्चों से बागान में जबरिया काम कराते थे . साहूकार लोग छोटे किसानों को कर्ज के जाल में फंसाकर उनकी जमीनें हडपने में लगे थे . जिसके चलते छोटे किसान भी मजदूर बनने को मजबूर हो गए . एक तरफ चाय बागान मालिकों का कहर दूसरी तरफ साहूकारों के कर्ज का मकडजाल जिसके विरोध में शोषित , पीडित , दमित श्रमिक वर्ग उठ खडा हुआ और उसने विद्रोह कर दिया . इस आंदोलन की शुरुआत बंगाल के नक्सलवाडी क्षेत्र से हुई थी . जिसके नाम पर इस आंदोलन का नामकरण हुआ नक्सलवादी आंदोलन . हालांकि नक्सलबाडी से होता हुआ यह आंदोलन आमारबाडी , तुमारबाडी समेत तमाम क्षेत्रों में फैलता चला गया . शायद नक्सलवाद इतना न पनपा होता यदि श्रमिकों के विद्रोह से आहत जमींदारों द्वारा उन पर गोलीबारी न की गई होती . क्योंकि इसी गोलीबारी के चलते तमाम मजदूर मारे गए थे . इसी हिंसा के दौरान एक इंस्पेक्टर की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी . इस हिंसक आंदोलन की परिणति यह हुई कि 1969 में कन्हाई चटर्जी ने दक्षिण देश नामक एक संगठन खडा किया . जिसका मकसद शोषण के विरुद्ध आवाज बुलंद करना था . दूसरी तरफ सीपीआई एम ने इस तरह के हिंसक जवाबों को सही ठहराते हुए एक समानांतर संगठन ऑल इंडिया कोआर्डिनेशन कमेटी फार कम्युनिस्ट रिवोल्यूशनरी का गठन कर दिया . जिसका उद्देश्य इस तरह के हिंसक प्रतिवाद की पैरोकारी करना था . इस समिति में चारू मजूमदार और कानू सान्याल शामिल थे . बाद में यही दोनों कामरेड नक्सलवादी आंदोलन के प्रवर्तक के रूप में जाने गए .
पश्चिमी बंगाल से फैला यह लाल आतंक आज देश के कम से कम आधा दर्जन राज्यों में सरकारों के लिए सिरदर्द बना हुआ है . जबकि नक्सलियों का विस्तार देश के 18 राज्यों के 218 जिलों एवं 400 से अधिक पुलिस स्टेशनों तक हो चुका है .
25 अप्रैल 2017 से 3 अप्रैल 2021 के मध्य देश में माओवादियों से मुठभेड की 18 प्रमुख घटनायें घटीं थीं . इन मुठभेडों में दर्जनों सुरक्षाकर्मी भी शहीद हो गए थे . छत्तीसगढ में 2007 से 2021 के मध्य कम से कम 10 बडी घटनाएँ घटी हैं जिनमें लगभग तीन सौ सुरक्षाकर्मी शहीद हो चुके हैं . ऐसा नहीं है कि हर बार सुरक्षाबलों ने ही मात खाई हो बीते 10 वर्षों में सुरक्षाबल 1300 से अधिक माओवादियों को भी ठिकाने लगा चुके हैं .
2004 से 2012 तक देश में नक्सलवाद पूरे चरम पर रहा है . नक्सली वारदातों और हिंसक घटनाओं ने केन्द्र सरकार को तक चिंता में डाल दिया था . तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को तो बढती नक्सली घटनाओं से आजिज आकर कहना पडा था कि इनसे देश की आंतरिक सुरक्षा के लिए खतरा उत्पन्न हो गया है . हालांकि इसके बाद से सरकार ने सलवा जुडूम और ग्रीन हंट जैसे अभियान चलाकर नक्सलियों की कमर तोडने का प्रयास किया है . लेकिन नक्सलियों और सरकार के बीच छद्म युद्ध लगातार जारी है . नक्सलवाद दरअसल एक विचारधारा का पोषक है . हिंसा का जबाब हिंसा से देने के बजाए जरूरत है उन कारणों पर काम करने की जिसके चलते यह हिंसा थमने का नाम नहीं ले रही . और राजनीतिक दलों के साथ प्रशासन को मिलकर भरोसा जगाना होगा . अन्यथा नक्सलवाद का यह तांडव यूं ही सुरक्षाकर्मियों को निशाना बनाता रहेगा .

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