अकेले चुनाव शिगूफा या बसपाई रणनीति

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राकेश कुमार अग्रवाल
बहुजन समाज पार्टी सुप्रीमो मायावती ने सोमवार को एक बार फिर घोषणा कर विधानसभा चुनावों को लेकर अपने पत्ते खोल दिए हैं . मायावती ने कहा है कि उनकी पार्टी केरल , पश्चिमी बंगाल , तमिलनाडु , और पुदुच्चेरी में अकेले चुनाव लडेगी . वह किसी भी दल से गठबंधन नहीं करेगी . 2022 में उत्तर प्रदेश में होने वाले विधानसभा चुनावों में भी पार्टी अपने दम पर चुनाव लडेगी . यूपी में भी पार्टी किसी भी पार्टी से गठबंधन नहीं करेगी . उन्होंने पार्टी के संस्थापक मान्यवर काशीराम के 87 वें जन्मदिवस पर पत्रकार वार्ता में अपनी पार्टी की रणनीति का खुलासा किया . मायावती ने पहली बार किसी पार्टी से गठबंधन न करने की बात कही हो ऐसा भी नहीं है इसके पहले वे जनवरी में अपने जन्मदिन पर भी किसी अन्य पार्टी के साथ मिलकर चुनाव न लडने की बात कह चुकी थीं .
1984 से प्रदेश की राजनीति में कदम रखने वाली बहुजन समाज पार्टी ने महज एक दशक के राजनीतिक संघर्ष के बाद प्रदेश की सत्ता तक अपनी पहुंच बना ली थी . बसपा प्रदेश की एक बडी राजनीतिक पार्टी है . ऐसे में बसपा सुप्रीमो द्वारा आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर अपने पत्ते खोलने के बाद प्रदेश में संभावित गठबंधनों की जमीन व भविष्य के समीकरणों पर गुणा भाग लगना तय है .
दरअसल बहुजन समाज पार्टी को प्रदेश में गठबंधन सरकारों का जनक कहा जा सकता है . आजादी के बाद से 1991 तक प्रदेश में एक ही पार्टी की सरकार बनती रही है . 1985 में प्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनी थी . नारायणदत्त तिवारी प्रदेश के आखिरी कांग्रेसी मुख्यमंत्री थे . इसके बाद 1989 में जनता दल की ओर से मुलायम सिंह यादव ने प्रदेश की कमान संभाली थी . यह वह दौर था जब आरक्षण और बोफोर्स तोप सौदे में दलाली का मुद्दा पूरे देश की राजनीति का केन्द्र बिंदु था . लेकिन 1989 के चुनावों में जिस राजनीतिक दल का उदय हुआ था उसका नाम था बसपा . भले मायावती को हर चुनावों में हार का सामना करना पड रहा हो लेकिन 1989 के चुनावों में बसपा ने 10 फीसदी वोटों के साथ 13 सीटें हासिल कर राजनीतिक ताकत के रूप में अपनी इंट्री दर्ज करा दी थी . मुलायम सिंह यादव महज डेढ साल ही सत्ता सुख भोग पाए थे कि फिर चुनावों की रणभेरी बज गई थी . बोफोर्स और आरक्षण के मुद्दों की जगह 1991 में राममंदिर ने ले ली थी . 1989 के चुनावों में जिस भाजपा ने महज 57 सीटें हासिल की थीं राममंदिर के चुनावी मुद्दा बनने पर भाजपा डेढ साल बाद 57 सीटों से न केवल 221 सीटों पर पहुंच गई बल्कि कल्याण सिंह पहले भाजपाई मुख्यमंत्री बने . जनता दल 208 सीटों से सिमटकर 92 पर आ गया . जबकि भाजपाई आँधी के बावजूद भी बसपा अपना प्रदर्शन दोहराने में कामयाब रही . बसपा ने 1991 में 12 सीटें हासिल की थीं . जो 1989 की सीटों से महज एक कम थी . वो मायावती जो 1984 से लगातार चुनाव मैदान में उतर कही थीं . कैराना से लेकर बिजनौर , हरिद्वार व पंजाब के होशियारपुर से मायावती चुनाव मैदान में उतरीं लेकिन फिर भी जीत हासिल नहीं कर सकी थीं . 1992 में अयोध्या का विवादास्पद ढांचा कारसेवकों द्वारा ढहाए जाने के बाद उत्तर प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया था . 1993 में जब विधानसभा चुनाव हुए तो सपा व बसपा ने आपस में गठबंधन किया और साथ मिलकर चुनाव मैदान में कूद पडे . जिसका फायदा दोनों दलों को मिला . बसपा ने अपनी सीटों में पांच गुना इजाफा करते हुए 67 सीटें हासिल कीं जबकि सपा 109 सीटें हासिल कर सकी . इस गठबंधन ने 176 सीटें हासिल की थीं . काशीराम और मुलायम सिंह यादव द्वारा साथ में मिलकर चुनाव लडने का यह प्रयोग काफी हद तक सफल रहा . भाजपा 177 सीटें हासिल करके सबसे बडी पार्टी तो बनी लेकिन सत्ता की दहलीज तक न पहुंच सकी . गठबंधन का फायदा यह हुआ कि मुलायम सिंह यादव का दूसरी बार प्रदेश के मुख्यमंत्री बनने का रास्ता साफ हुआ . जून 1995 में वह दिन भी आया जब बसपा ने सपा से समर्थन वापस लिया और भाजपा की मदद से स्वयं प्रदेश की मुख्यमंत्री बन गईं .
बसपा ने देखते ही देखते अपने जनाधार में जोरदार इजाफा किया . उसने दलितों के अलावा मुस्लिमों और ब्राह्मणों को अपने साथ जोडकर कांग्रेस की चूलें हिला दीं . बसपा सुप्रीमो का मानना है कि चुनावों में दूसरी पार्टी से गठबंधन का फायदा बसपा को नहीं मिलता है . बसपा के वोटर गठबंधन वाली पार्टी को तो वोट दे देते हैं लेकिन वही पार्टियां अपने वोट बसपा के पक्ष में ट्रांसफर नहीं करा पाती हैं . 2007 में बसपा ने अकेले दम पर 206 सीटें जीतकर यह साबित कर दिया कि गठबंधन की राजनीति से जनता ऊब चुकी है . जनता चाहती है कि अकेला एक दल सरकार चलाए . लेकिन 2007 में मिली कामयाबी और बढत को मायावती दोहरा नहीं सकीं . 14 साल से बसपा सत्ता से दूर है . एकला चलो रे की तर्ज पर बसपा ने अकेले चुनाव मैदान में उतरने का फैसला ले तो लिया है . अब इस फैसले के परिणाम बसपा का राजनीतिक भविष्य तय करेंगें .

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