आसान नहीं है एमपी में सरकार बनाने की डगर

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राकेश कुमार अग्रवाल
मध्यप्रदेश को देश के उन चुनिंदा राज्यों में शुमार किया जाता है जहां आज भी दो ध्रुवीय राजनीति है . कांग्रेस और भाजपा के इर्द गिर्द ही मध्यप्रदेश की राजनीति का पेंडुलम घूमता है . अलबत्ता सीमावर्ती राज्य होने के कारण उ.प्र के प्रमुख राजनीतिक दलों सपा व बसपा ने भी मध्यप्रदेश में राजनीतिक जमीन तैयार करने की बहुतेरी कोशिश की है . बसपा इस मामले में सपा से ज्यादा बेहतर स्थिति में रही है . इन उपचुनावों में भी बसपा कुर्सी का वह पाया बनने की जुगत में है जिससे मध्यप्रदेश की राजनीति और वहां की सरकार में वह अपरिहार्य बन जाए .
2018 के विधानसभा चुनाव परिणाम ने गठबंधन सरकार की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी जब भाजपा और कांग्रेस थोडे सी सीटों के अंतर से बहुमत हासिल नहीं कर पाए थे . 230 सदस्यीय विधानसभा में अपनी दम पर सरकार बनाने और बहुमत हासिल करने के लिए 115 सीटों पर जीत की दरकार होती है . कांग्रेस जहां 114 सीटें हासिल कर सकी थी वहीं भाजपा उससे थोडा पीछे 109 सीटें हासिल कर पाई थी . ऐसे में सभी दलों की नजरें बसपा से निर्वाचित दो , सपा से एक व निर्दलीय 4 विधायकों पर आकर टिक गई थी . कांग्रेस ने अन्य निर्वाचित विधायकों का समर्थन हासिल कर सरकार बना ली थी . इस तरह से लगातार 13 वर्ष से मध्यप्रदेश की सत्ता संभाल रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान को गद्दी से पदच्युत होना पडा था .
प्रदेश में हो रहे 28 सीटों के लिए उपचुनाव में जहां कांग्रेस के समक्ष अपनी अपदस्थ सरकार को बचाने की चुनौती है वहीं भाजपा के लिए फिर से सत्ता हासिल करने का दबाव है . लेकिन इन दोनों ध्रुवों के बीच दोनों पार्टियों का खेल बिगाडने के लिए बसपा पूरे दमखम से चुनाव मैदान में है .
बसपा ने मध्यप्रदेश में 2003 , 2008 व 2013 में 69 सीटों पर दस फीसदी से अधिक वोट अर्जित कर प्रदेश में तीसरी ताकत के रूप में उभरने के संंकेत दिए थे . इन तीनों विधानसभा चुनावों में बसपा ने 13 सीटें जीती थीं एवं वह 34 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी . हालांकि 2018 के चुनावों में बसपा केवल दो सीटें हासिल कर पाई थी . लेकिन सरकार बनाने में कांग्रेस को जब विधायकों के समर्थन की जरूरत पडी तो बसपा के दोनों विधायक कांग्रेस के तारणहार बने थे . उपचुनावों में यूं तो मुख्य मुकाबला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही माना जा रहा है लेकिन ग्वालियर – चम्बल क्षेत्र की 8 सीटों जौरा , मुरैना , अम्बाह , गोहद , डबरा , पोहरी , मेहगांव व करैरा पर बसपा पूरे दमखम से चुनाव मैदान में है.
भाजपा को सत्ता में वापसी के लिए नौ सीटें जीतने की जरूरत है जबकि कांग्रेस को कम से कम 21 सीटें जीतने की जरूरत है . इस उपचुनाव में ऊंट किस करवट बैठेगा अभी भी उहापोह की स्थिति है . कमलनाथ भाजपा को वाॅकओवर नहीं दे रहे हैं . वे खुद भी ऐडी चोटी का जोर लगाए हुए हैं . इसलिए एक एक सीट पर संघर्ष है.
एक संभावित समीकरण भाजपा और कांग्रेस दोनों पार्टियों को हलाकान किए है कि यदि भाजपा वांछित 9 सीटों से कम जीतती है तो आगे का परिदृश्य क्या होगा ? कमोवेश ऐसे ही पशोपेश में कांग्रेस है कि यदि कांग्रेस सरकार बनाने के लिए न्यूनतम 21 सीटों से यदि कुछ कम सीटें हासिल करती है तो क्या वह फिर से सपा , बसपा और निर्दलीय की शरण में जाएगी . भाजपा और कांग्रेस दोनों इस समीकरण पर भावी संभावनाओं की गणित को भी अनदेखा नहीं कर रहे हैं . एवं उन विधायकों को भी गुड फेथ में लिए हैं ताकि जरूरत पडी तो मिली जुली सरकार बनाई जा सके .
प्रदेश की जिन 28 सीटों पर उपचुनाव हो रहा है उनमें 358 प्रत्याशी चुनाव मैदान में हैं . हालांकि उपचुनाव में दावेदारों की संख्या 2018 के चुनावों के मुकाबले घटी है . 2018 में इन 28 सीटों पर 375 प्रत्याशी चुनाव मैदान में उतरे थे . सबसे कम 6 प्रत्याशी नेपानगर सीट पर हैं जबकि सबसे ज्यादा दावेदार मेहगांव सीट पर हैं जहां पर 38 उम्मीदवार चुनावी मुकाबले में हैं . यहां पर प्रत्याशियों की संख्या 34 से बढकर 38 हो गई है. उपचुनावों में बागी प्रत्याशियों ने मैदान में उतरकर मुकाबलों में और हलचल पैदा कर दी है . ग्वालियर – चंबल क्षेत्र की मुरैना , अम्बाह और दतिया सीट पर चार बागी प्रत्याशी मैदान में कूद पडे हैं . बागियों में से तीन भाजपा व एक बसपा से हैं . सबसे ज्यादा रोचकता अम्बाह सीट पर पैदा हो गई है क्योंकि इस सीट से तीन बार विधायक रहे भाजपा के बंशीलाल टिकट न मिलने से खफा होकर सपा के टिकट पर चुनाव मैदान में कूद पडे हैं . यहीं से भाजपा नेता अभिनव छारी भी निर्दलीय चुनाव मैदान में डट गए हैं . भांडेर सीट से भाजपा के रामदयाल प्रभाकर को टिकट न मिलने पर वे भी निर्दलीय चुनाव मैदान में आ डटे हैं . और तो और बसपा जैसे दलों में भी विद्रोह के हालात हैं मुरैना से बसपा नेता राजीव शर्मा को टिकट न मिलने पर वे भी बागी हो गए हैं . ऐसे में इस संभावना से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि बागी प्रत्याशी पार्टियों की उम्मीदों पर तुषारापात न कर दें . फिलहाल चुनाव प्रचार अंतिम दौर में है . जो भी दल मतदाताओं को कोरोना के खौफ के बावजूद अपने पक्ष में मतदान करने के लिए घरों ले निकालने में सफल होगा वही प्रत्याशी और पार्टी के भविष्य का फैसला करेगा .

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