उत्तर प्रदेश – फिर हिलोरे मारने लगी जातिवादी राजनीति

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राकेश कुमार अग्रवाल

ज्यों ज्यों उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों का वक्त नजदीक आता जा रहा है त्यों त्यों प्रदेश में जातियों को साधने की राजनीति शुरु हो गई है . वर्ण व्यवस्था में बंटे समाज में दरअसल जाति आज भी सबसे बडा चुनावी फैक्टर है . जिस जाति पर सभी राजनीतिक दलों की निगाहें हैं वह है देश – प्रदेश की सबसे चर्चित जाति ब्राह्मण . सभी राजनीतिक दल ब्राह्मणों को अपने पक्ष में लामबंद करने के लिए भले जोर शोर से लगे हों लेकिन सच यह भी है कि ब्राह्मणों के एकमुश्त वोट पाना किसी एक राजनीतिक दल के लिए सहज नहीं है .

जब जब भी चुनावों का वक्त नजदीक आता है . मीडिया व राजनीतिक विश्लेषक उन मुद्दों को पकडने व उछालने की कोशिश करते हैं जो उन्हें लगता है कि इन मुद्दों पर अलग अलग दलों की राय जानने के बाद जनता को मतदान करने में सुविधा रहेगी . हकीकत भी यही है कि प्रदेश में आम मतदाता अभी भी विभिन्न मुद्दों पर दलों की राय के आधार पर यह तय नहीं करता कि उसे किस दल या प्रत्याशी के पक्ष में मतदान करना है . बल्कि पूरा चुनाव जातियों की गणित बिठाने एवं पार्टी के वोट बैंक को मिलाकर जीत की राह बना देता है .

चुनावी महाभारत में यूं तो सभी जाति , धर्म , वर्ग व संप्रदाय का बराबर का महत्व होता है लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जाति ही सबसे बडा चुनावी मुद्दा होता है . जिसके बारे में प्रदेश में अकसर कहा जाता है कि जाति यहां से जाती ही नहीं . प्रत्याशी चयन से लेकर जातियों के बडेे अलम्बरदारों को चुनावी टाइम पर खास तौर पर घेरा जाता है .

एक आकलन के मुताबिक प्रदेश में ब्राह्मण की आबादी लगभग 10 फीसदी है . ब्राह्मण एक ऐसी जाति है जो तथ्यों , तर्कों के साथ समाज को दूसरे तबके को भी प्रभावित करने में अगुआ रहती है . माउथ पब्लिसिटी में इस जाति का कोई सानी नहीं है . यही कारण है कि इनमें ऐसे मतदाताओं को प्रभावित करने की क्षमता होती है जो किसी पार्टी या प्रत्याशी से बंधे नहीं हैं एवं जो मतदान के ऐन पहले तय करते हैं कि उन्हें किसी वोट देना है .

चौंकाने वाला एक बडा रोचक तथ्य यह भी है कि प्रदेश में जिस पार्टी से सबसे ज्यादा ब्राह्मण विधायक चुनकर आते हैं वही पार्टी प्रदेश में सरकार बनाती है . आँकडे भी इस बात की तस्दीक करते हैं . 2017 के विधानसभा चुनावों में प्रदेश में 56 ब्राह्मण चुनकर विधानसभा पहुंचे थे . इन 56 में से 46 प्रत्याशी भाजपा को टिकट पर चुने गए थे . 2012 में अखिलेश यादव के नेतृत्व में समाजवादी पार्टी की सरकार बनी थी . प्रदेश में सबसे ज्यादा 21 ब्राह्मण प्रत्याशी सपा की ओर से निर्वाचित हुए थे . इसके पहले 2007 के चुनावों में बहुजन समाज पार्टी सत्ता में आई थी . दलितों की हितैषी बसपा ने ब्राह्मणों को चुनाव मैदान में उतारकर जो राजनीतिक गुगली फेकी थी वह तुरुप का इक्का साबित हुई थी . बसपा से 2007 में रिकार्ड 41 ब्राह्मण प्रत्याशी चुनकर विधानसभा पहुंचे थे .
अब जबकि सभी राजनीतिक दल चुनावी रणनीति को अंतिम रूप देने में लगे हैं सभी पार्टियों का जोर ब्राह्मणों पर डोरे डालने पर है . राजनीतिक फील्डिंग भी इसी के इर्द गिर्द रची जा रही है . भाजपा अन्य दलों के मुकाबले इस मामले में बढत पर नजर आ रही है . इसका कारण भी है कि भाजपा चुनावों को रणनीति बनाकर जी जान से लडती है . एक बडा कारण यह भी है कि भाजपा पहले से सत्ता में है . पार्टी भी चाहती है कि वह 2017 का प्रदर्शन एक बार फिर से दोहराए . इसलिए पार्टी के रणनीतिकार कोई कसर नहीं छोडना चाहते हैं . इसी रणनीति के तहत हाल ही में दो बडे ब्राह्मण चेहरों की भाजपा में इन्ट्री हुई है . कांग्रेसी नेता व पूर्व मंत्री पश्चिमी उत्तर प्रदेश के प्रमुख ब्राह्मण चेहरा जितिन प्रसाद के अलावा बसपा सरकार में मंत्री रहे रामवीर उपाध्याय की पत्नी व पूर्व सांसद सीमा उपाध्याय को पार्टी में शामिल करने के अलावा पूर्व नौकरशाह रिटायर्ड आईएएस अधिकारी व नरेन्द्र मोदी के करीबी रहे अरविन्द कुमार शर्मा को प्रदेश उपाध्यक्ष बनाया गया है . इसके अलावा अर्चना मिश्रा को प्रदेश मंत्री एवं प्रांशु दत्त द्विवेदी को युवा मोर्चा का अध्यक्ष बनाया गया है . मुख्यमंत्री योगी राम मंदिर निर्माण के साथ अयोध्या व चित्रकूट को तीर्थ के रूप में विकसित कर ब्राह्मणों के बीच में अपनी छवि को और चमकाने की कोशिश में है कि वे हिंदुत्व व धर्म के बडे पैरोकार हैं .

समाजवादी पार्टी भी लखनऊ समेत पूरे प्रदेश में परशुराम मंदिर बनाने की बात कर ब्राह्मणों को अपने पक्ष में लाने की जुगत में है . तीन दशक पहले तक ब्राह्मण कांग्रेस का वोटर होता था . लेकिन कांग्रेस के पराभव के बाद अब ब्राह्मण भी कांग्रेस की जगह उन पार्टियों का दामन थाम लेता है जो उसे पार्टी का टिकट दे , पार्टी में बडा पद देकर समायोजित करे . हालांकि सच यह भी है कि वह वहां जाना अब ज्यादा पसंद करता है जहां उसके लिए ज्यादा बेहतर संभावनायें हों . ब्राह्मणों ने एकजुटता के चलते राजनीति में अपनी प्रासंगिकता बनाए रखी है यह भी कम बडी बात नहीं है . ब्राह्मण नेता भले एकजुट न हों लेकिन अपने नेता के पक्ष में मतदाता तो एकजुट हो ही जाते हैं . यही कारण है कि सभी पार्टियों को ब्राह्मण याद तो आने लगे हैं .

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