गाजे-बाजे के साथ बेलासागर सरोवर में महाबुलिया को किया विसर्जित

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बेलाताल ( महोबा ) । नई संस्कृति भले सभी त्योहारों पर हावी होती जा रही हो लेकिन बुंदेलखंड में आज भी लोकपर्व और उनसे जुडी परम्परायें जीवित हैं। पितृ पक्ष पर आयोजित होने वाले महाबुलिया पर्व की इस बार भी धूम रही। गीत संगीत नृत्य के साथ बेलासागर सरोवर में महाबुलिया का विसर्जन किया गया। जमीदारी मोहल्ले की कविता कुशवाहा , प्रियंका , काजल, शिल्पी, रागनी , सुनीता व प्रियंका एवं काजल राधा – कृष्ण बनकर बैंडबाजों के साथ गाते नृत्य करते हुए बेलासागर सरोवर पहुंची जहां महबूलिया की पूजा कर विसर्जित किया।

यहां महबुलिया का रूप स्वरूप पारम्परिक प्रथा से बिल्कुल भिन्न है। इस प्रथा में चंद ऐसे बदलाव किये गये हैं कि शोक का यह पर्व भी हर्षोल्लास से ओत प्रोत हो जाता है।

गाँव में प्रचलित महबुलिया एक ऐसी अनूठी परंपरा है, जिसे घर के बुजुर्गों के स्थान पर छोटे बच्चे बनाते है। समय में बदलाव के साथ हालांकि अब यह परम्परा गांवों तक ही सिमट कर रह चली है।

लोक जीवन के विविध रंगों में पितृपक्ष पर पूर्वजों के प्रति श्रद्धा और समर्पण का भी अंदाज जुदा है। पुरखों के तर्पण के लिए यहां पूजन अनुष्ठान श्राद्ध आदि के आयोजनों के अतिरिक्त बच्चों (बालिकाओं) की महबुलिया पूजा बेहद खास है। जो नई पीढ़ी को संस्कार सिखाती है।

पूरे पंद्रह दिनों तक चलने वाले इस कार्यक्रम में काँटो को सजाकर हर रोज पितृ आवाहन ओर विसर्जन के साथ इसका आयोजन सम्पन्न होता है।

इस दौरान यहाँ गांव की गलियां में बच्चों की मीठी तोतली आवाज में गाये जाने वाले महबुलिया के पारम्परिक लोक गीतों को गाते हुए जाती हैं।

क्षेत्र में लोकपर्व का दर्जा प्राप्त महबुलिया की पूजा का भी अपना अलग ही तरीका है। बच्चे कई समूहों में बंटकर इसका आयोजन करते है।

महबुलिया को एक कांटेदार झाड़ में रंग बिरंगे फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है। विधिवत पूजन के उपरांत उक्त सजे हुए झाड़ को गाते बजाते हुए गांव के बेलासागर तालाब में विसर्जित कर दिया गया। महबुलिया के विसर्जन के उपरांत वापसी में बच्चे राहगीरों को चने की दाल और लाई का प्रसाद बांटते हुए अपने घरों को लौटते हैं।

Rakesh Kumar Agrawal

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