बुंदेलखंड के पलायन का सच, आपदा में अवसर बना बुंदेलियों के लिए पलायन

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भले विकल्पहीनता की स्थिति में लोगों ने बुंदेलखंड से पलायन किया था। लेकिन इसी विकल्पहीनता को बुंदेलियों ने आपदा में अवसर में बदल डाला है। पलायन करके जाने वाले अधिकांश लोग अब दाने दाने को मोहताज नहीं रहे। बल्कि तमाम ऐसे भी बुंदेलखंडी हैं जिन्होंने फर्श से अर्श का सफर तय कर डाला है। जिनके बारे में यह कहने में कोई गुरेज नहीं है कि वे न केवल जीरो से हीरो बन गए बल्कि गांव व क्षेत्र के लोगों के लिए रोल माॅडल बन गए हैं।
कैरियर, रोजगार या फिर रोजी रोटी के वास्ते जब कोई व्यक्ति अपने घर परिवार , अपने लोगों , अपने गांव व अपनी मिट्टी को, छोडकर जाता है तो वह खुशनुमा भविष्य का सपना जरूर पालकर जाता है लेकिन हकीकत यह भी है कि शंकाओं के बादलों से वह घिरा हुआ होता है। क्योंकि उसके साथ एक डर का साया भी साथ साथ चलता है। सबसे बड़ा डर असफलता को लेकर होता है। ढेर सारे सपने पालकर शहर गए लोगों के समक्ष बड़ा डर यही होता है कि अगर असफल हो गए तो घर वापसी का विकल्प भी नहीं होगा। दूसरा डर शहरी संस्कृति व शहरी दुनिया में खुद को एडजस्ट करने का होता है। क्योंकि गांवों की दुनिया अभावों की दुनिया है। खेत -खलिहानों की दुनिया है। सुविधाओं से वंचित व समस्याओं की दुनिया है जबकि शहरी दुनिया जनसैलाब की दुनिया है। धक्का मुक्की की दुनिया है। गगनचुम्बी इमारतों की दुनिया है। सम्पन्नता की दुनिया है। आपाधापी की दुनिया है। प्रोफेशनलिज्म की दुनिया है।
खाने का इंतजाम, रहने की व्यवस्था तीसरा डर होता है कि वहां यह सब कैसे अरेंज होगा। क्योंकि घर पर तो यह सब जिम्मेदारी या तो मां या फिर पत्नी निभा देती है। तो चौथा डर होता है कि उन्हें किस तरह का काम करने को मिलेगा। क्योंकि पलायन करने वाले अधिकांश लोग अनुभव शून्य होते हैं। न तो वे उच्च शिक्षित होते हैं न ही किसी स्किल में दक्ष होते हैं। ऐसे में उनके समक्ष काम चुनने का विकल्प कम और मिले काम को करने की मजबूरी ज्यादा होती है। भले दिया गया काम उनके मन का हो या न हो। यहां तक कि काम के बदले में मिलने वाला पारिश्रमिक या मजदूरी को लेकर भी वे मोलभाव करने की स्थिति में नहीं होते हैं। कुल मिलाकर जो प्रारम्भिक हालात होते हैं वे केवल और केवल समझौते के होते हैं। क्योंकि मनाही करने का मतलब होता है कि मिले अवसर को खो देना।
बुंदेलियों ने शहरों में मिले मौकों को हाथों हाथ लिया। मौकों को लपका, दिए गए काम को सीखा। और धीरे धीरे अपनी पकड़ बनाई। काम करने में दक्षता हासिल की। और कुछ ही वर्षों के काम के बाद वे कंपनी और प्रबंधकों के चहेते बन गए।
जो बुंदेली शुरुआत में ठेकेदारों से गिडगिडाते हुए काम मांग रहे थे वो अब इस स्थिति में पहुंच गए थे कि अपनेे गांव व क्षेत्र से आए लोगों को अपनी पहचान के बल पर काम दिला रहे थे। तमाम मजदूर अब स्वयं ठेकेदार बन बैठे थे। वे कंपनी को उनकी जरूरत के श्रमिक स्वयं उपलब्ध कराने लगे थे। वे अपने गांव में परिजनों व रिश्तेदारों को लड़कों को भेजने के लिए कहते साथ ही कंपनी से मिलने वाली सैलरी व अन्य सुविधाओं का हवाला देते तो बड़ी संख्या में युवा गांव छोड़ छोड़कर शहर जाने लगा। मजदूर से ठेकेदार बने इन लोगों को फैक्ट्रियों , कंपनियों में मजदूर उपलब्ध कराने के बदले में मोटा कमीशन मिलने लगा। किस्मत पलटना शुरु हुई तो देखते ही देखते कुछ दशकों में मजदूर अब ठेकेदार बन बैठा। और स्वयं छोटे छोटे ठेके लेने लगा। गांवों से अकेले शहर गए लोगों को जब लगा कि उनके शहर आने का फैसला सटीक रहा है तो उन्होंने अपने दूसरे भाईयों , दोस्तों व रिश्तेदारों को भी काम दिलाने को लिए शहर बुला लिया। बहुत सारे शादी शुदा युवाओं ने अपनी पत्नी व बच्चों को भी वहीं बुला लिया। इससे पत्नी व बच्चों को लेकर रोजाना सताने वाली चिंता खत्म हो गई। भोजन पकाना , कपड़े धोने से निजात मिल गई। कुछ समयान्तराल के बाद उन्होंने अपनी पत्नी को भी काम के साथ जोड़ लिया। हर बड़े नगर व शहर में कंपनियों , फैक्ट्रियों व निर्माणाधीन बहुमंजिला इमारतों के इर्द गिर्द छोटी छोटी बुंदेली कालोनियाँ विकसित हो गईं। एवं रोजाना का जरूरत का सामान भी लोगों ने बेचना शुरु कर दिया।
बुंदेलखंड से पलायन करके शहर गए इन बुंदेलियों के पास खोने के लिए कुछ नहीं था लेकिन अब उनके पास पाने के लिए सारा जहां था। उपेक्षा से बदहाल बुंदेलों ने अब जीना सीख लिया है। उन्होंने जीने का रास्ता ढूंढ लिया है। पलायन करके गए बुंदेली अब भुखमरी से नहीं जूझ रहे। उनके हालात बदले हैं। हम यह भी कह सकते हैं कि आपदा में भी बुंदेलियों ने अवसर ढूंढ निकाले हैं।

राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट

Anuj Maurya

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