बुंदेलखंड – पलायन तब और अब

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महोबा-19 नवम्बर को महोबा आए देश के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने आधा दर्जन जल परियोजनाओं के लोकार्पण के बाद संबोधित करते हुए कहा था कि सिंचाई से जुड़ी इन परियोजनाओं , बुंदेलखंड एक्सप्रेस वे व डिफेंस काॅरीडोर के निर्माण से न केवल यहां के लोगों को रोजगार मिलेगा बल्कि महानगरों की ओर होने वाला पलायन भी रुकेगा।
देखा जाए तो बीते तीन दशकों से बुंदेलखंड से लाखों की संख्या में रोजी रोजगार के लिए बड़े शहरों , महानगरों , औद्योगिक शहरों के लिए युवाओं का पलायन हुआ है। सिर पर कपड़ों की गठरी या पोटली लादे , एक हाथ से बच्चों को पकड़े व हरी , नीली साड़ी में लिपटी दुधमुंहे बच्चे को अपने सीने में लगाए रेलवे स्टेशनों व स्टेंड पर सैकड़ों की संख्या में ऐसे दंपत्तियों को विभिन्न शहरों व नगरों में देखा जा सकता था।
दरअसल बुंदेलखंड की जब भी जेहन में चर्चा आती है बदहाल , बेहाल , फटेहाल बुंदेलियों की सूरत आँखों के समक्ष उभर आती है। भीषण गरीबी , पेयजल व सिंचाई की गंभीर समस्या , बेरोजगारी , अशिक्षा , स्वास्थ्य , सड़कें सभी मूलभूत मोर्चों पर बुंदेलखंड आजादी के बाद से ही हाशिए पर रहा है।

बड़े परिवार व सिमटता कृषि का आधार


बुंदेलखंड में तीन – चार दशक पहले तक हर परिवार में चार से लेकर आठ बच्चे होते थे। संयुक्त परिवारों का चलन था। खेती व पशुपालन ही जीविका के मुख्य आधार थे। शिक्षा के मामले में बुंदेलखंड के हालात तब भी बहुत बेहतर नहीं थे। यहां की पथरीली जमीन उस पर सिंचाई की व्यवस्था वर्षा जल पर आश्रित होने के कारण खेती कभी भी लाभकारी उपक्रम नहीं रहा। लेकिन उस समय उपभोक्तावाद नहीं था। सोशल स्टेटस जैसी बातें नहीं थी। जीवन यापन के लिए खेती व पशुपालन से रोजी रोटी का जुगाड़ हो जाता था। शिक्षा व शादी विवाह भी बहुत खर्चीले नहीं होते थे। घर परिवारों में सुख साझा होता था और दुख भी साझा होते थे। लेकिन अकस्मात परिवार के मुखिया का जाना परिवारों के बिखरने का बड़ा कारण बना। इससे परिवारों का विघटन शुरु हुआ। बंटवारे में घर बंटा , खेती बंटी, पशु बंटे। जो घरों में थोड़े से साधन- संसाधन थे वो बंटे। खेती में जुताई , बुवाई से लेकर कटाई व खेत खलिहान तक जब पूरा परिवार मिलकर काम करता था। तब सभी काम सहजता से सम्पन्न हो जाते थे। महिलायें भी खेती व पशुओं को संभालने में बराबर की सहभागी होती थीं। जब बंटवारा हुआ तो हिस्से में खेती तो थोड़ी आई लेकिन जिम्मेदारी पूरी होती थी। ऐसे में यदि व्यक्ति न हो एवं खेती किसानी की बेहतर जानकारी न हो तो खेती घाटे का सौदा बनते देर नहीं लगती है। और यह वह दौर था जब खेती में सब कुछ मैनुअली या फिर पशुओं की मदद से काम होता था। ऐसे में सुकुमार व्यक्ति या फिर जो सभी मौसम में काम करने के लिए जी जान से काम करने के लिए तैयार न हो खेती नहीं कर सकता था। जातियों में बंटे समाज में वो लोग जो अपने काम में माहिर थे उनको कोई दिक्कत नहीं थी लेकिन ऐसे लोग जो केवल कृषि व पशुपालन से जुड़े थे उनके पास दूसरा कोई हुनर नहीं था।

हुनरमंद लोगों ने की थी शहरों में काम पाने की शुरुआत


बुंदेलखंड में जातिवाद व सामंतवाद की जड़े बड़ी मजबूत रही हैं। यहां जिस व्यक्ति का संबंध जिस जाति से रहा है। पैतृक रूप से वो उस काम में दक्ष हो जाता था। बचपन से वह परिवार के सभी लोगों को उसी काम में जुटे हुए देखता था। बिना किसी औपचारिक प्रशिक्षण के संतानें उस काम को सीख जाती थीं। लुहार गिरी , बढ़ईगिरी , नाईगिरी , दर्जी आदि ऐसे सभी काम उन जातियों से जुड़े लोग करते थे। रजाई तागना , चारपाई बुनना , झाड़ू बनाना , डलिया बनाना जैसे तमाम काम ऐसे थे जिनमें बुंदेलखंड के लोग सिद्धहस्त थे।
कल भी जारी …. ….

राकेश कुमार अग्रवाल रिपोर्ट

Anuj Maurya

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