16 सितम्बर को विश्व ओजोन दिवस पर विशेष

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राकेश कुमार अग्रवाल

पूरी दुनिया से अब यह आवाजें मुखर हो रही हैं कि हमारी पृथ्वी संकट में है। संकट भी हमारा ही पैदा किया हुआ है। जिससे पूरी दुनिया दो चार हो रही है। एक तरफ ओजोन परत को क्षतिग्रस्त होने से बचाने का दबाब है तो दूसरी तरफ प्राकृतिक संसाधनों को बचाने की लडाई है। पर्यावरण प्रदूषण और प्राकृतिक संपदा का बेतहाशा दोहन ग्लोबल वार्मिंग जैसी विनाशकारी समस्या को जन्म दे चुका है। ग्लोबल वार्मिंग के अलग-अलग प्रभाव आज पूरे विश्व में चर्चा का विषय हैं। अनेक जहरीली गैसें जिनमें ग्रीनहाउस गैसें मुख्य रूप से ग्लोबल वार्मिंग को बढ़ाने का काम करती हैं। इनमें प्रमुख अवयव CFC या क्लोरोफ्लोरोकार्बन वायुमंडल में काफी ऊंचाई पर स्थित ओजोन परत को नष्ट कर रहा है। ओजोन परत के क्षरण से सूर्य की हानिकारक अल्ट्रावॉयलेट किरणें सीधे जमीन पर पहुंचकर मानव शरीर को नुकसान पहुंचा रही हैं । ओजोन परत के संरक्षण और उसके महत्व को आमजन तक पहुंचाने के लिए ही प्रतिवर्ष 16 सितंबर को विश्व ओजोन दिवस मनाया जाता है।

बढते औद्योगिकीकरण व वनों के कटान ने न केवल मानसून चक्र को गडबडा दिया है बल्कि धरती के तापमान में लगातार वृद्धि हो रही है। वर्ष २०१९ को सबसे गर्म वर्ष के रूप में दर्ज किया गया है। ओजोन परत के संकट का ही परिणाम है त्वचा संबंधी बीमारियों की बाढ आ गई है। जिन जगहों पर ज्यादा फैक्ट्रियां हैं वहां पर नए नए तरह त्वचा रोग उभर आए हैं। बढ मानसून चक्र एक महीने तक के लिए खिसक गया है। गर्मी के दिनों में बुंदेलखंड भट्टी बन जाता है और यहां का तापमान 50 डिग्री सेल्सियस के आसपास तक पहुंच जाता है। बांदा में कई बार पूरे देश में सबसे अधिक तापमान दर्ज किया जा चुका है।

प्राकृतिक संसाधनों का ज्यादा से ज्यादाेत्र दोहन अंधी कमाई का शार्टकट बन गया है। शासन – प्रशासन की मिलीभगत पर यह खुला खेल खेला जाता है। जिसके चलते नदियाँ , पहाड सभी संकट में हैं। वो समय दूर नहीं पहाडी और पठारी क्षेत्र के रूप में जाने जाने वाला बुंदेलखंड अब केवल पठारी क्षेत्र बचेगा। क्योंकि पहाडों पर पोकलेंड जैसी भारी भरकम मशीनें २४ घंटे गरज रही हैं। पहाड वर्तमान में ठूँठ की तरह बचे हैं अधिकांश तो खनन की भेंट चढकर खोखले हो चुके हैं। जंगल सफाचट हो चुके हैं. नदियाँ की दुर्दशा भी किसी से छिपी नहीं है। एक ओर बालू खनन दूसरी ओर उनमें गंदे नालों का पानी , औद्योगिक इकाइयों का वेस्टेज , सीवर , मूर्ति विसर्जन जैसे उपक्रमों के चलते नदियाँ का अस्तित्व खतरे में है। नदियां मर रही हैं। सूख कर नाले में बदल रही हैं। और पूरी व्यवस्था राजस्व अर्जित करने के नाम पर शुतुरमुर्ग बनी हुई है। जब प्रकृति कराह रही है तो हम कैसे प्रकृति के अस्तित्व के बिना मानव सभ्यता को बचा पायेंगे।
हमारे ऋषि – मुनियों , पुरखों व पूर्वजों ने नदियों को मां माना था। ताकि हम उनको संरक्षित करें और हमारी लाईफ लाईन जीवनदायिनी बनी रहे। हमने पेडों को पूजा। धरती को मां माना , पहाडों पर देवताओं को बिराजा , देवालयों की स्थापना कराई ताकि हमारे पहाड सुरक्षित रहें। लेकिन उपभोक्तावाद ने सबको लील लिया है। अभी भी चेतने का वक्त है अन्यथा याद रखिए हम आने वाली पीढियों के लिए रहने लायक , बसने लायक , जीने लायक धरती तो छोडकर नहीं जाने वाले। मालथूसियन जैसे विद्वान पहले ही घोषित कर चुके हैं कि तीव्र जनसंख्या वृद्धि के कारण पर्यावरण को नुकसान हो रहा है। और इस नुकसान की भरपाई पृथ्वी अपने तरीके से करती है। प्रकृति पर्यावरण और जैविक संतुलन स्थापित करने के लिए महामारी , आपदा, बाढ, भूकंप , सुनामी जैसे हालात उत्पन्न कर देती है।

कहते हैं न कि ” लम्हों ने खता की सदियों ने सजा पाई .”

इस सजा को कौन कौन भुगतेगा..? तैयार रहिए।

Rakesh Kumar Agrawal

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